सृष्टि
निर्माण और
जिज्ञासा-२
सृष्टि की उत्पति के विषय में हमारे शास्त्र कहते हैं कि भगवान् नारायण की नाभि कमल से ब्रह्मा जी का प्रागट्य हुआ । (यद्यपि
अधिकाँश स्थानों पर मनुष्य शरीर को नव छिद्र माय माना गया है, परन्तु
यहाँ उन दो गुप्त या मर्म स्थानों का वर्णन करना अनिवार्य है जो गर्भावस्था में तो छिद्र होते हैं, परन्तु
गर्भ के पश्चात बंद हो जाते हैं, और
ब्रह्मतत्व की प्राप्ति हो, तभी
पुनः खुलते हैं । अन्यथा साधारणतः देह नवछिद्र्मयि ही रहती है ।) दो
आँखें, दो
कान, दो
नासिका छिद्र, एक
मुख, एक
गुदा व् एक शिश्न ये तो सामान्य नव छिद्र हैं, परन्तु
नाभि व् ब्रह्मरंध्र ये दो गुप्त छिद्र हैं । नाभि के द्वारा ही जीव का ब्रह्मा से संपर्क टूटकर इस लोक से जुड़ता है । इसी कारण पुराणिक मिथकों में ब्रह्मा को विष्णु की नाभि प्रस्फुटित कमल की कर्णिका पर बैठा दिखाया जाता है और ब्रह्मरंध्र से पूर्व विधृति के मार्ग से ही जीव की देह में ब्रह्म का अंश प्रविष्ट होता है तथा ब्रह्मज्ञान प्राप्त होने पर योगियों के प्राण ब्रह्मरंध्र के मार्ग से ही ऊधर्वगति प्राप्त करते हैं । ब्रह्मा अजीब स्थिति में पड़ गए । वे समझ नहीं पा रहे थे कि मेरा प्रादुभाव क्यों हुआ ? मुझे
क्या करना है ? तभी
आकाशवाणी हुयी, तप
कर तप कर । इसके बाद ब्रह्मा समाधि में स्थित हुए । उससे सामर्थ्य प्राप्त करके उन्होंने अपने संकल्प से इस सृष्टि की रचना की । अर्थात हमारी सृष्टि की उत्त्पति ही तप से हुई । इसका मूल भाव तप है । हमारे शास्त्रों में अनेक प्रकार के तप बताये गए हैं । उनमे एक तप है - निष्काम
कर्म, सेवा,
परोपकार इसी तप को भगवान् कृष्ण ने गीता में 'कर्मयोग'
कहा तथा ज्ञान, भक्ति
और योग की भाँती इस साधना को भी भगवान् की प्राप्ति में, मोक्ष
की प्राप्ति में समर्थ बताया । व्यक्ति अपने तथा अपने परिवार के प्रति तो उदार रहता है, परन्तु
दूसरों की उपेक्षा करता है । वह स्वयं को दूसरों से भिन्न मानता है । इसी का नाम अज्ञान है । जन्म मरण का, शोक
कष्ट का, उत्पीड़ना
व् भ्रष्टाचार आदि पापों का मूल कारण है । भेदभाव और द्वेष ही मृत्यु है तथा अभेद, अनेकता
में एकता, सब
में एक को देखना, सबकी
उन्नति चाहना ही जीवन है ।
समस्त बुराईयों का मूल है स्वार्थ और स्वार्थ अज्ञान से पैदा होता है । स्वार्थी मनुष्य जीवन की वास्तविक उन्नति एवं ईश्वरीय शान्ति से बहुत दूर होता है । न तो उसमे श्रेष्ठ समझ होती है और न ही उत्तम चरित्र । वह सदा धन और प्रतिष्ठा पाने की योजनायें बनाया करता है । मनुष्य वास्तविक कल्याण में स्वार्थ बहुत बड़ी बाधा है, इस
बाधा को निस्वार्थ सेवा एवं सत्संग के द्वारा दूर किया जाता है । स्वार्थ में यह दुर्गुण है कि वह मन को संकीर्ण तथा ह्रदय को संकुचित बना देता है । जब तक ह्रदय में 'मैं
और मेरे' की
लघुग्रंथी होती है, तब
तक सर्वव्यापक सत्ता की असीम सुख शान्ति नहीं मिलती और हम अद्भुत पवित्र प्रेरणा प्राप्त नहीं कर पाते । इसके लिए ह्रदय का व्यापक होना आवश्यक है । इसमे निःस्वार्थ सेवा एक अत्यंत उपयोगी साधन है । निष्काम कर्म जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने की पहली सीढ़ी है ।
इश्वाप्नोषिद में लिखा है - अखिल
ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी जड़ या चेतन है, वह
ईश्वर से व्याप्त है । उस ईश्वर को साथ रखते हुए ही उसका त्याग पूर्वक भोग करो । किसी धन अथवा भोग्य पदार्थ में आसक्त मत होओ । यहाँ पर त्याग पहले और भोग बाद में । यदि व्यक्ति अपने परिवार में ही आसक्त रहे, तो
वह विश्व प्रेम में विकसित नहीं कर सकेगा, विश्व
भ्रातृत्व नहीं पनपा सकेगा । सभी के बच्चे अपने बच्चों के सामान नहीं लगेंगे । व्यक्ति का प्रेम, जो
व्यापक ईश्वर सत्ता को अपने हृदय में प्रगट कर सकता है , वह
प्रेम, नश्वर
परिवार के मोह में ही फंस कर रह जाएगा । परमार्थ को साधने के लिए कलह, अशांति
तथा सामाजिक दोषों को निर्मूल करने के लिए विश्व प्रेम को विकसित करना होगा । संकुचिता को छोड़कर हृदय को फैलाना होगा ।
निःस्वार्थ सेवा के द्वारा अद्वैत्व की भावना पैदा होती है । दुःखियो के प्रति शाब्दिक सहानुभूति दिखाने वालों से तो दुनिया भरी पड़ी है, परन्तु
जो दुःखि को अपने हिस्से में से दे दे, ऐसे
कोमल ह्रदय वाले लोग विरले ही होते हैं । निःस्वार्थ सेवा चित के दोषों को दूर करती है । जिसका चित्त शुद्ध नहीं, वह
भले ही शास्त्रों में पारंगत हो, वेदान्त
का विद्वान् हो, उसे
आंतरिक शान्ति नहीं नील सकती । सेवा का हेतु क्या है ? चित्त
की शुद्धि ! अहंकार
द्वेष, इर्ष्या,
घृणा आदि कुभावों की निवृति, भेद
भाव की समाप्ति । इससे जीवन का दृष्टिकोण एवं कर्म क्षेत्र विशाल होगा, ह्रदय
उदार होगा, सुषुप्त
शक्तियां जाग्रत होंगी, विश्वात्मा
के प्रति एकता आनंद की झलकें मिलाने लगेंगी । सब में एक और एक में सब ....की
अनुभूति होगी । इसी भावना के विकास से समाज को जोड़ा जा सकता है ।
सृष्टि चक्र - कोई
एक नियम पूरे ब्रह्माण्ड में व्याप्त है । इसे आप कोई भी नाम दे सकते हैं ऋतू। धर्म, लोगोस
अथवा सत्यार्थ । यह नियम पूरे विराट या द्विक क्षेत्र को एक ही ले में बांधे हुए हैं । इसी नियम के सहारे पृथ्वी और दूसरे ग्रह अपनी कक्षा में घूम रहे हैं । ऋतुएँ आ जा रही हैं । बीज अंकुर बन कर बड़ा हो रहा है, फिर
वृक्ष बन कर करोड़ों बीजों को जन्म दे रहा है । इसी नियम के तहत हर तरह का चयापचय खिलकर मुरझा रहा है । विज्ञान की भाषा में इसे Microsm कहा जाता है । फिर वही सब जो बाहर घट रहा है । भीतर अर्थात देह के भीतर भी घाट रहा है । उसी तरह एक लय में बंधा है । माँ के गर्भ में बीज पड़ रहा है । शिशु का जन्म हो रहा है । शरीर के भीतर खून दौड़ रहा है । फेफड़े हवा पी कर छोड़ रहे हैं । पेट में रोटी जाकर स्वाहा हो रही है । आंतें उच्छिष्ट को लगातार बाहर फेंक रही हैं ।
शिशु, किशोर
फिर युवा हो रहा है । धीरे धीरे देह के पुर्जे घिस रहे हैं । थकान बिंदु आने पर एक दिन इन्द्रयाँ जवाब दे रही हैं । कभी आँखों में अन्धेरा छाया, कभी
दांतों ने टूटना शुरू किया । कभी हाथों में कंपन्न, कभी
बहरापन । आते आते एक दिन ऐसा भी आता है कि शरीर नामवाला यह कारखाना ठप हो जाता है । बाहर प्रकृति में मोटे तौर पर पांच तत्व पृथ्वी, जल,
अग्नि, आकाश
और हवा कर्मरत हैं, जो
शरीर को भी चलाते हैं ।
वैज्ञानिक कहते हैं ये तत्व पांच नहीं एक सौ अठानावें (198) है
। हो सकता है, कल
इनकी संख्या दो सौ (200) भी
हो जाए । इन्हीं सब के जोड़ से शरीर में जो हरकत पैदा होती है, उसे
जीवन कहा जाता है ।
अन्य जीवधारियों के पास भी दिमाग है, मगर
आदमी के पास यह ज्यादा बड़ा है, इसमें
लगभग 15 करोड़
कोशिकाएं हैं, जिनमें
आयोजन क्षमता है । अवबोधन है, कल्पनाशीलता
है, स्मृति
कोष एवं भाव प्रवणता आदि अनेक गुण हैं । ऐसा सोचना कि पशु पक्षियों में कई कमियाँ हैं । शायद सही नहीं होगा, इसलिए
कि कई विशेषताएं अन्य जीवधारियों में एकदम विशिष्ट हैं । उदाहरण के लिए मक्खी अपने चारों पंजों से स्वाद लेने की क्षमता रखती है । सांप अपनी पूरी देह से सांस लेता है । मादा कछुआ दूर से देखकर ही अपने अंडों को सेती है । गिध्द आकाश से 6 मील
नीचे पड़े भोजन को देख लेता है । कुत्ता अपनी घ्राण शक्ति से मीलों दूर भागे अपराधी का पीछा कर सकता है ।
अगर आदमी का दिमाग अपने आपको पूरे ब्रह्मांड से जुड़ा हुआ मानता है तो याग हुयी समझदारी । इसे कहेंगे ज्ञान और जब यही आदमी इस समस्त प्रपंचजाल के समक्ष स्वयं को पूरी तरह नगण्य मानकर, याग
स्वीकार करने लग जाता है कि चेतना की एक ही डोर ने सब को बाँध रखा है और यह सृष्टि एक धारावाहिक की तरह है । जिसकी पटकथा सम्भवतः पाहिले ही लिखी जा चुकी है, जिसमें
एक-एक की अपनी-अपनी अलग भूमिका है, जिसे
सबको निभाना ही निभाना है, तो
यह हुआ अध्यात्म । यह नियम क्यों है ? इस
प्रश्न से दर्शन का जन्म हुआ । यह नियम कैसे कार्य करता है । इस प्रश्न से विज्ञान की शुरुआत हुयी औए इस नियम के पीछे शायद कोई नियंता होगा । इस स्वीकृति के साथ बोध अथवा धर्म का जन्म हुआ ।
पश्चिम कहता है -प्रकृति
की शक्तियां मनुष्य से अलग हैं, इसलिए
पश्चिम ने उसे चुनौती के रूप में देखा और उस पर विजय पानी चाहि, जब
की पूर्व ने विशेष रूप से भारत ने प्रकृति को दोस्ती की निगाह से देखा, इसिलिये
वह यांत्रिकता या विज्ञान की ओर ना बढ़ कर भीतर आत्म प्रगति की ओर बढ़ा और अन्तः मथन कर उसने पाया कि परिवर्तन का नियम अकाट्य है, वह
स्थिर है । अंततः दोनों ने लगभग वाही पाया । यह कि पृथ्वी में गुरुत्वाक्षण है, उस
पर लकड़ी का टुकडा और पत्थर एक ही गति से गिरते हैं । आग जलाती है । एक गति विशेष पर फेंके जाने के बाद पुद्गल प्रकाश बन जाता है
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