Friday, September 27, 2019


मेरा भगवान्

मेरे प्यारे दोस्तो, तर्क वितर्क में ही समय बर्बाद करोगे, और मेरा भगवान् राम, मेरा भगवान् कृष्ण, मेरा भगवान् शिव, या ये ग्रन्थ गीता, महाभारत, पुराण, उपनिषद, पढ़ कर क्या सीख रहे हो और क्या बता रहे हो ? अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग

सब कुछ इस शरीर में है सारा विश्व, सारे देवी देवता, जो कुछ हम सब ये लिख रहे हैं.... ये भी इसी में से निकल कर रहा है भगवान् को ढूँढना है तो अपने अन्दर ढूँढो

"बाहर मूल खोजिये घर माहि विधाता।"

गुरुवाणी में कहा गया है : "बाहर मूल खोजिये घर माहि विधाता।" बाइबल कहता है : इंसान परमात्मा को बाहर तालाशता है, जब की वह हमारे भीतर है हमारे निकट निवास करता है।

कबीर कहते हैं की इंसान की दशा कस्तूरी मृग की भांति है, जिसकी नाभि में कस्तूरी छिपी होती है, वह उसकी खुसबू से सारोबार हो कर बाहर जंगल में ताउम्र तालास्ता फिरता है। परन्तु प्राप्त नहीं कर पाता और उसके जीवन का अंत हो जाता है।

कस्तुरी कुंडली बसे, मृग ढूंढे बन मांही
ऐसे घटि घटि राम हैं, दुनियां देखे नाही

मृग की नाभी में कस्तूरी रहती है वह उसकी सुगंध से अभिभूत हो कर उसे प्राप्त करने के लिए वन-वन में ढूडता फिरता है, वैसे आनंद स्वरूप भगवान् प्रत्येक के अंतःकरण में निवास करते हैं जीव उस आनंद के आभास से मुग्ध हो कर उसे पूर्ण रूप से प्राप्त करने की इच्छा से विभिन्न साधनाओं में भटकता है

इंसान इसी तरह से अनभिज्ञ है की जिस प्रकार तिलों में तेल है, चकमक पत्थर में आग होती है, दर्पण में अक्ष होता है, पुष्प में सुगंध होती है, उसी प्रकार परमात्मा हमारे भीतर है। अज्ञानतावस् हम मृग की भाँती ताउम्र उसे बाहर खोजते हैं, पर प्राप्त नहीं कर पाते। परमात्मा तो कहता है - " मोको तू कहाँ ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में, ना मैं मक्का ना मैं काबा ना काशी कैलाश में।"लेकिन हम मूढ़ जन इस संदेस को सुन नहीं पाते.

इंसान इस तथ्य से अनभिज्ञ है की जिस प्रकार तिलों में तेल होता है, चकमक पत्थर में आग होती है, दर्पण में अक्ष होता है, पुष्प में सुगंद्ध होती है, उसी प्रकार परमात्मा हमारे भीतर है अज्ञानतावश हम मृग की भांती ताउम्र उसे खोजते रहते हैं, पर प्राप्त नहीं कर पाते परमात्मा तो कहता है - मोको कहाँ तू ढूंढे रे बन्दे मैं तो तेरे पास में, ना मैं मक्का ना मैं काबा ना काशी कैलाश में लेकिन हम मूढ़जन इस संदेश को सुन नहीं पाते सुनते हैं तो समझ नहीं पाते

भगवान् तो सबके हैं, तब भक्त को भगवान् क्यों कहा जाता है ?

इसलिए कहा जाता है कि केवल भक्त ही भगवान् का अनुभव करते हैं ज्ञान की चर्चा द्वारा कहा जाता है-कि भगवान् सबके हैं किन्तु यह बोध केवल भक्त के मन में ही जागरूक रहता है साधक बोलते हैं, 'यह बात ठीक है कि भगवान् सबके हैं, किन्तु भक्त ने उन्हें बाँध रखा है '

पांडत्य, अध्ययन या बौद्धिक चर्चा के द्वारा कोई भगवान् को नहीं पाता है, पायेगा भी नहीं मानव जीवन सीमित है, अल्प समय में बहुत कार्य करना होगा व्यर्थ तर्क या व्यर्थ अध्ययन में समय नष्ट करना मुर्खता है मूल्यवान समय को नष्ट नहीं करना है लम्बे-चौड़े भाषण से परम पुरुष को पाया नहीं जाता। महामहोपाध्याय होने से भी नहीं चलेगा साधना मार्ग की न्यूनतम योग्यता है निर्मल ह्रदय, यदि ह्रदय निर्मल हो तो काम चलेगा, कार्य हो जाएगा

पंडित सोचते हैं, वे जब तौल कर बातें बोलते हैं, तौल कर हंसते हैं, तौल कर रोते हैं, तब वे साधारण मनुष्य नहींहैं, उनकी बुद्धि अधिक है। किन्तु मैं कहता हूँ, छोटे मस्तिष्क में कितनी बुद्धि सकती है यदि वो पागल हो जाता है, रास्ते में बच्चे उसके पीछे दौड़ते हैं और चिढ़ाते हैं जब कोई वृद्ध हो जाता है, तो स्मृति भ्रंश हो जाती है इसीलिए पांडित्य पर गर्व करने का क्या कोई अर्थ होता है ? कई लोग सोचते हैं 'मैंने जब बहुत अच्छी अच्छी बातें सुनी हैं, तब मुझे और कुछ करने की क्या आवश्यकता है ? यदि बहुत सुनना ही अच्छी बात होती तो मैं अध्यात्म के बारे में जो बोलूंगा, उससे तो मोक्ष की प्राप्ति होगी, क्योंकि वे अच्छी अच्छी बातें जो मैंने बोली हैं। इसलिए सुनाने से भी कुछ नहीं होता जिस पर उनकी कृपा की वर्षा होती है वही सब कुछ पाता है केवल बहुत सुनाने की दौलत से कोई 'हरिपरि मंडल' का सदस्य नहीं हो सकता निर्मल ह्रदय की न्यूनतम योग्यता हांसिल करनी होगी तभी वह परमपुरुष के स्वरुप का अनुभव कर सकता है, भक्ति के द्वारा परम पुरुष को वैय्क्तिक सम्पति मान ले सकता है भक्त परमपुरुष के अतिरिक्त और सब कुछ छोड़ सकता है भगवान् ही उसका जीवन है, इसलिए उनको छोड़ने से उसका देहांत हो जाएगा यही भक्त की कृपणता है ' परम पुरुष किस प्रकार स्व्यं को प्रकट करते हैं ? सबके मन में तो उनको पाने की अभिलाषा है, कैसे उनको पाया जाए ?

मनुष्य के शरीर में तीन प्रकार के बल हैं - शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शारीरिक बल को चेष्टा के द्वारा मानसिक बल में और मानसिक बल को साधन के द्वारा आध्यात्मिक बल में रूपांतरित कर सकते हैं आध्यात्मिक बल सबसे शक्तिशाली है

आध्यात्मिक बल कैसे अर्जित किया जाए ? निष्ठा से मानसिक बल और साधना से आध्यात्मिक बल अर्जित होता है जिसे जिद्द है, वही मानसिक शक्ति का अधिकारी होता है मानसिक शक्ति लेकर साधना में बौठने से आध्यात्मिक बल किया जाता है हम सब के भीतर यह बल मौजूद है, इसे प्राप्त करना कठिन नहीं है

लेकिन साधना प्रमादग्रस्त हो जाए प्रमाद उसे ही कहते हैं, जिसके आदि में, मध्य में और अंत में भ्रान्ति रहती है लक्ष्य ठीक कर कार्य में आगे बढ़ना होता है लक्ष्य ठीक रहने से प्रमाद नहीं होता है इसलिए सब समय लक्ष्य का स्मरण करना तुम्हारे लिए उचित है प्रमादग्रस्त होने से ही मुश्किल है

इसीलिए मंत्र की आवश्यकता होती है ।उससे लक्ष्य ठीक रहता है सब समय ही लक्ष्य को स्मरण रखना और सब समय उसके लिए प्रयास करना - इन दोनों का मिलित नाम है साधना मनुष्य जब साधना करेगा तब उसे स्मरण रखना होगा कि परम पुरुष बैकुंठ में नहीं है, वे तुम्हारे साथ हैं, तुम्हारे पास हैं जिस तरह तिल के भीतर तेल है, उसी तरह तुम्हारे भीतर परमपुरुष है तुम मन में जो सोचते हो, परम पुरुष वह सुनते हैं

परमपुरुष सब जानते हैं कुछ भी उनसे अज्ञात नहीं है तिल के भीतर तेल रहने से भी बाहर से तो दिखाई नहीं पड़ता पोषण करने से ही तेल बाहर आता है इसलिए ईश्वर प्राप्ति के लिए अन्तर्मुखी साधना आवश्यक है दही में रहता है घृत दहिमंथान से ही उसे पाया जाता है मंथन बिना मख्खन पृथक नहीं होगा

परमपुरुष भीतर है, बाहर घूम-फिर कर मरने से कुछ नहीं होगा पुण्य लाभ की आशा में त़ामस स्वभाव युक्त व्यक्ति कुंड -कुंड में स्नान करते फिरते हैं वहां डुबकी लगाते हैं और रोग लेकर घर लौटते हैं तामस व्यक्तियों की यही बात है स्वाभाविक धार्मिक व्यक्ति क्या करेंगे ? जिस तीर्थ स्थान के लिए खर्च नहीं होता है, समय नष्ट नहीं होता है, उसी तीर्थ स्थान के लिए मन के भीतर स्वयं को ले जाओगे, तीर्थ का दर्शन पाओगे

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