एक कहानी
ये
भी
........जिसने मन को छू
लिया
बचपन
में अपनी कक्षा
की किताब में
एक कहानी पढ़ी
थी, वह आज
भी मन में
जब तब गूँजती
है और जब
भी कुछ गलत
होता या दिखता
है तो बरबस
ही याद आ
जाती है ।
आपमें बहुतों ने
ये कहानी पढ़ी
भी होगी ।
आइए एक बार
फिर इस मार्मिक
एवं अर्थपूर्ण कहानी
की याद ताजा
की जाए ।
तो प्रस्तुत है
वो कहानी जिसने
न जाने कितने
लोगों को छुआ
होगा एवं आज
भी यह उतनी
ही सशक्त एवं
सार्थक है ।
बहुत
समय पहिले की
बात है बाबा भारती
नाम के एक
संत किसी गाँव में
रहते थे ।
वे गाँव के
सभी लोगों से
बड़ा प्रेम रखते
थे एवं उनकी
हमेशा सहायता करने
में तत्पर रहते
थे । गाँव
वासी भी उन्हें
बहुत चाहते थे
। बाबा भारती
के पास एक
घोडा था जिसे
उन्होंने जब वह
बच्चा था तब
से पाला था
। बड़ा होने
पर वह घोड़ा
बहुत फुरतीला एवं
अच्छी कद काठी
वाला हो गया
। बाबा भारती
को उससे अत्यधिक
लगाव था और
वो एक पल
के लिए भी
उसे नहीं छोड़ते
थे । घोड़े
और उससे बाबा
भारती के लगाव
की कथा शीघ्र
ही दूर दूर
तक फेल गयी
और लोग इसे
प्रत्यक्ष देखने के लिए
आते रहते थे
। उनमें से
कुछ लोग बाबा
से घोड़े को
बेचने का प्रस्ताव
भी रख देते
थे । परंतु
बाबा को यह
नामंज़ूर था ।
वो साफ मना
कर देते थे
। धीरे धीरे
ये बात प्रख्यात
डाकू खड़ग सिंह
को पता लगी
। वह भी
घोड़ा देखने बाबा
की कुटिया पर
पहुँच गया ।
घोड़ा अत्यधिक पसंद
आने पे उसने
बाबा को अपना
असली परिचय देते
हुए उसे खरीदने
की पेशकश बाबा
के सन्मुख की,
परंतु बाबा किसी
भी तरह तैयार
नहीं हुए ।
खड़ग सिंह को
ये बात अच्छी
नहीं लगी और
उसने बाबा को
कहा बाबा जी
आपको घोड़े का
क्या काम एवं
अब यह घोड़ा
आप के पास
ज्यादा दिन नहीं
रह पाएगा ।
बाबा कुछ न
बोले परंतु उस
दिन के बाद
से बहुत सतर्क
हो गए ।
रात में कई
कई बार उठ-
उठ कर
घोड़े को देखते
थे एवं तसल्ली
करते रहते थे
।
देखते
देखते कई दिन
बीत गए और
कुछ न हुआ
। सजग होते
हुए भी बाबा
को लगा शायद
खड़ग सिंह ने
अपना इरादा बदल
लिया है ।
एक दिन रोजाना
की भाँति वो
अपने घोड़े के
साथ सैर कर
वापस आ रहे
थे कि अचानक
रास्ते में किसी
व्यक्ति ने उन्हें
आवाज लगाई कि
वह बहुत बीमार
है तथा उसे
अगले गाँव तक
जाना है ।
बाबा उसे देख
कर द्रवित हो
गए एवं उसे
घोड़े पर बैठा
लिया । कुछ
दूर जाने के
बाद अचानक बाबा
को एक झटका
लगा और वह
बीमार व्यक्ति घोड़े
की लगाम अपने
हाथ में लेकर
तन के बैठ
गया । उसने
बाबा को बोला,
याद आया मैंने
कहा था कि
ये घोड़ा आपके
पास ज्यादा दिन
नहीं रहेगा ।
मैं डाकू खड़ग
सिंह हूँ और
ये घोड़ा ले
जा रहा हूँ
। बाबा को
तो जैसे साँप
ही सूंघ गया
। खड़ग सिंह
घोड़ा लेकर आगे
बढ़ा ही था
कि पीछे से
बाबा ने उसे
आवाज़ लगाई ।
बाबा की आवाज़
सुनकर खड़ग सिंह
पलटा और बोला
की बाबा अब
ये घोड़ा तो
आपको नहीं मिलेगा,
इसके अलावा जो
कहना है वो
कहो।
इस
पर बाबा भारती
ने डाकू खड़ग
सिंह से केवल
इतना ही कहा
कि इस घटना
का जिक्र किसी
से न करना
और वापिस मुड़
कर इस तरह
चल दिये जैसे
कि वो प्यारा
घोड़ा कभी उनका
था ही नहीं
। खड़ग सिंह
से रहा न
गया और उसने
पूछा बाबा इसका
क्या मतलब हुआ
। बाबा ने
अभिप्राय समझाते हुये कहा
कि यदि लोगों
को सच्ची घटना
का पता लग
गया तो उनका
अच्छाई पर से
विश्वास उठ जाएगा
एवं कोई दीन
दुखियों की मदद
नहीं करेगा ।
खड़ग सिंह गहरी
सोच में पड़
गया, उसने सोचा
भी न था
कि अभी अभी
पायी जीत की
खुशी इतनी जल्दी
धूमिल होने वाली
है । खड़ग
सिंह के अंदर
जैसे कुछ पिघल
रहा था ।
उसकी कठोरता उसकी
इस अकस्मात हार
के आगे बेबस
हो चली थी
।
रात्री
के चौथे प्रहर
में रोज़ की
भांति बाबा भारती
नित्य करमों से
निव्रत्त होकर आदतन
अस्तबल में पहुँचे,
परंतु फिर जैसे
उन्हें याद आया
तो वो मायूस
होकर वापिस लौटने
लगे कि तभी
घोड़े ने मालिक
के क़दमों की
आहट पहचानकर ज़ोर
से हिनहिनाया ।
आश्चर्य एवं प्रसन्नता
से बाबा भारती
तुरंत घूमे और
घोड़े से लिपटकर
रोने लगे ।
उनकी आँखों से
लगातार आँसू बह
रहे थे ।
उधर डाकू खड़ग
सिंह भी ओट
में खड़ा चुपचाप
इस अद्भुत मिलन
को देखकर आँसू
बहा रहा था
। जीता हुआ
घोड़ा लौटाकर भी वो
बहुत खुश था
। जीत की
इस हार में
एक ऐसी अनजानी
जीत थी जिसका
संबंध सीधे मन
से था, भावनाओं
से था ।
बाबा भारती भी
हार की इस
जीत से विस्मयपूर्ण
प्रसन्नता में थे
।
सच
में अब हार
जीत का कोई
अर्थ नहीं था
। कोई जीतकर
भी हारा था
और कोई हारकर
भी जीता था,
मगर दुखी कोई
भी नहीं था
। सच्चे अर्थों
में ये तो
मानवता की जीत
थी, जिसने एक
बर्बर डाकू को
भी सोचने और
अच्छाई की तरफ
लौटने को विवश
कर दिया था।
कहते हैं कि
हर हार के
पीछे एक जीत
होती है और
हर जीत के
पीछे एक हार
होती है, लेकिन
क्या जीत ही
प्रसन्नता का पैमाना
है ? तो आइए
अपनी हार में
भी जीत ढूंढें
और जीत को
भी सही अर्थों
में पाएँ ।
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