Monday, February 25, 2013


Desire is the Mother of all Sorrows.

Desires are controlling the brain and this is the root cause of all sorrows. From desire wants develop, from wants needs arise; from needs search for resources to fulfil the need arise; from effort s to get the resources which are not within the reach starts deviation from the right path and right methods. When the resources acquired through right means are not adequate to meet the desires and wants; the man inside and the humanity gives way to greed; when greed takes control of the brain, action become modern in the form of loot- direct or indirect loot just to meet the wants. At this stage the simple man dies mentally; demons take control of that body and from then on, starts public looting, as several of our “Elected and Co-opted members of state Assemblies and Indian Parliament do. All morality is lost, and goes after amassing wealth and all comforts at any cost, including murders.

In nutshell, desire is the mother of all sorrows.

And the same desire will not harm anyone when it is within the available resources. Don’t forget the miniature God within all of us, so that our desires will never exceed our resources and this will never cause any sorrow for any one.”

एक ने कही, दूसरे ने मानी   
नानक कहे दोनो ज्ञानी ।।
मानने वाला बडा ज्ञानी होता है
कहने वाले तो बहुत है ।।

और फिर होता है सुख और दुःख का खेल

हम अपने ही सुख-दुःख से बाहर निकलना नहीं चाहते हमें अपना दुःख ही बड़ा दिखाई देता है, जबकि दूसरे का दुःख -दर्द समझना ही नहीं चाहते इस वजह से हमारे भीतर करुणा का भाव कम होता चला जाता है खुद को दुःख से ऊपर उठाना हो तो अपने भीतर करुणा भाव को बढ़ाते जाओ

दुःख ओर दर्द दोनो में फर्क होता है दर्द शरीर में होता है और दुःख मन से होता है कभी कभी शरीर पर चोट लगती है तो दर्द अधिक होता है पर दुःख कम कभी कभी अपनों से चोट लगती है तो दर्द कम होता है पर दुःख अधिक दुनिया के दुःखों को दो भागों में बाटा जा सकता है खोने का डर - किसी इंसान का, इज्जत, पैसा, पावर, आदि पाने की इच्छा - Desires दुःख है उसका को कारण है उसका को निवारण भी है जो भगवान के जितना ज्यादा निकट है, वो उतना ज्यादा सुखी है जो भगवान से जितना दूर है, वो उतना ही  दुःखी है जिसकी जरूरतें कम होती जाती हैं वो उतना ज्यादा सुखी है जब जरूरतें बढ़्ती जाती हैं, तो वो वो उतना ही दुःखी है जिसकी जरूरतें कम होती जाती हैं वो भगवान के निकट होता जाता है जब जरूरतें बढ़्ती जाती हैं तो वो भगवान से दूर होता जाता है हमें जरूरतें (necessities), comfort and luxuries के अंतर को समझना चाहिये यदि मन सत्संग में हो तो दुःख काफी कम हो जाता है

कुछ लोग ऐसे होते हैं जो दूसरों को मानसिक चोट पहुँचाने मैं आनंदित होते हैं, वो नर पिशाच के ही सामान होते हैं जो शरीर से ज्यादा मन पर चोट पहुंचाते हैं ऐसे लोगों को पहचान कर जहाँ तक संभव हो उनसे दूरी बना लेने में ही हित होता है नर पिशाच से दूरी रखने का भी एक तरीका होता है उनको दूर से सलाम करना चाहिये उनके बहुत दूर भी मत जाओ और बहुत नजदीक भी मत आओ

रिश्तो को बनाये रखो कुछ रिश्ते पुस्तक की जिल्द की तरह सुन्दर और मजबूत होते हैं, जिनके भीतर का हर पृष्ठ एकाकार और एकसार हो, जुड़ा होता है ........ कुछ रिश्ते कागज के होते हैं जो वक्त बेवक्त जरूरत के समय सौदागर हो जाते हैं जिनमें अभाव होता है दर्द का ......कुछ रिश्ते कागज़ और कलम से एक दूसरे के बिन अपनी बात कह ही नहीं पाते जब तक साथ होते हैं, एक पूरी ताकत वर्ना आधे-अधूरे .... कुछ रिश्ते गंगा-जमुना ही नहीं बल्कि सरस्वती की तरह अदृश् भी होते हैं और समर्पित भी ।।।

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