Desire is the Mother of
all Sorrows.
Desires
are controlling the brain and this is the root cause of all sorrows. From
desire wants develop, from wants needs arise; from needs search for resources
to fulfil the need arise; from effort s to get the resources which are not
within the reach starts deviation from the right path and right methods. When
the resources acquired through right means are not adequate to meet the desires
and wants; the man inside and the humanity gives way to greed; when greed takes
control of the brain, action become modern in the form of loot- direct or
indirect loot just to meet the wants. At this stage the simple man dies
mentally; demons take control of that body and from then on, starts public
looting, as several of our “Elected and Co-opted members of state Assemblies
and Indian Parliament do. All morality is lost, and goes after amassing wealth
and all comforts at any cost, including murders.
In
nutshell, desire is the mother of all sorrows.
And
the same desire will not harm anyone when it is within the available resources.
Don’t forget the miniature God within all of us, so that our desires will never
exceed our resources and this will never cause any sorrow for any one.”
एक ने कही, दूसरे ने मानी ।
नानक कहे दोनो ज्ञानी ।।
मानने वाला बडा ज्ञानी होता है ।
कहने वाले तो बहुत है ।।
और फिर होता है सुख और दुःख का खेल
हम अपने ही सुख-दुःख से बाहर निकलना नहीं चाहते । हमें अपना दुःख ही बड़ा दिखाई देता है, जबकि दूसरे का दुःख -दर्द समझना ही नहीं चाहते ।
इस
वजह
से
हमारे
भीतर
करुणा
का
भाव
कम
होता
चला
जाता
है । खुद को दुःख से ऊपर उठाना हो तो अपने भीतर करुणा भाव को बढ़ाते जाओ ।
दुःख ओर दर्द दोनो में फर्क होता है दर्द शरीर में होता है और दुःख मन से होता है । कभी कभी शरीर पर चोट लगती है तो दर्द अधिक होता है पर दुःख कम । कभी कभी अपनों से चोट लगती है तो दर्द कम होता है पर दुःख अधिक । दुनिया के दुःखों को दो भागों में बाटा जा सकता है । खोने का डर - किसी इंसान का, इज्जत, पैसा, पावर, आदि पाने की इच्छा - Desires दुःख है उसका कोई कारण है उसका कोई
निवारण
भी
है
।
जो
भगवान
के
जितना
ज्यादा
निकट
है,
वो
उतना
ज्यादा
सुखी
है
।
जो
भगवान
से
जितना
दूर
है,
वो
उतना
ही
दुःखी है । जिसकी जरूरतें कम होती जाती हैं वो उतना ज्यादा सुखी है । जब जरूरतें बढ़्ती जाती हैं, तो वो वो उतना ही दुःखी है । जिसकी जरूरतें कम होती जाती हैं वो भगवान के निकट होता जाता है । जब जरूरतें बढ़्ती जाती हैं तो वो भगवान से दूर होता जाता है । हमें जरूरतें (necessities), comfort and luxuries के अंतर को समझना चाहिये । यदि मन सत्संग में हो तो दुःख काफी कम हो जाता है ।
कुछ लोग ऐसे होते हैं जो दूसरों को मानसिक चोट पहुँचाने मैं आनंदित होते हैं, वो नर पिशाच के ही सामान होते हैं । जो
शरीर
से
ज्यादा
मन
पर
चोट
पहुंचाते
हैं
।
ऐसे
लोगों
को
पहचान
कर
जहाँ
तक
संभव
हो
उनसे
दूरी
बना
लेने
में
ही
हित
होता
है
।
नर
पिशाच
से
दूरी
रखने
का
भी
एक
तरीका
होता
है
। उनको दूर से सलाम करना चाहिये । उनके बहुत दूर भी मत जाओ और बहुत नजदीक भी मत आओ ।
रिश्तो को बनाये रखो । कुछ
रिश्ते
पुस्तक
की
जिल्द
की
तरह
सुन्दर
और
मजबूत
होते
हैं,
जिनके
भीतर
का
हर
पृष्ठ
एकाकार
और
एकसार
हो,
जुड़ा
होता
है
।........
कुछ
रिश्ते
कागज
के
होते
हैं
जो
वक्त बेवक्त जरूरत के समय सौदागर हो जाते हैं । जिनमें
अभाव
होता
है
दर्द
का ......कुछ रिश्ते कागज़ और कलम से एक दूसरे के बिन अपनी बात कह ही नहीं पाते । जब तक साथ होते हैं, एक पूरी ताकत वर्ना आधे-अधूरे ।.... कुछ रिश्ते गंगा-जमुना ही नहीं बल्कि सरस्वती की तरह अदृश्य भी होते हैं और समर्पित भी ।।।
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