आध्यात्मिक कहानी
दो
बौद्ध भिक्षु पहाड़ी
पर स्थित अपने
मठ की ओर
जा रहे थे।
रास्ते में एक
गहरा नाला पड़ता
था। वहां नाले
के किनारे एक
युवती बैठी थी,
जिसे नाला पार
करके मठ के
दूसरी ओर स्थित
अपने गांव पहुंचना
था, लेकिन बरसात
के कारण नाले
में पानी अधिक
होने से युवती
नाले को पार
करने का साहस
नहीं कर पा
रही थी।
भिक्षुओं
में से एक
ने, जो अपेक्षाकृत
युवा था, युवती
को अपने कंधे
पर बिठाया और
नाले के पार
ले जाकर छोड़
दिया। युवती अपने
गांव की ओर
जाने वाले रास्ते
पर बढ़ चली
और भिक्षु अपने
मठ की ओर
जाने वाले रास्ते
पर। दूसरे भिक्षु
ने युवती को
अपने कंधे पर
बिठा कर नाला
पार कराने वाले
भिक्षु से उस
समय तो कुछ
नहीं कहा, पर
मुंह फुलाए हुए
उसके साथ-साथ
पहाड़ी पर चढ़ता
रहा। मठ आ
गया तो इस
भिक्षु से और
नहीं रहा गया।
उसने अपने साथी
से कहा, हमारे
संप्रदाय में स्त्री
को छूने की
ही नहीं, देखने
की भी मनाही
है। लेकिन तुमने
तो उस युवा
स्त्री को अपने
हाथों से उठाकर
कंधे पर बिठाया
और नाला पार
करवाया। यह बड़ी
लज्जा की बात
है।
ओह
तो ये बात
है, पहले भिक्षु
ने कहा, पर
मैं तो उसे
नाला पार कराने
के बाद वहीं
छोड़ आया था,
लेकिन लगता है
कि तुम उसे
अब तक ढो
रहे हो। संन्यास
का अर्थ किसी
की सेवा या
सहायता करने से
विरत होना नहीं
होता, बल्कि मन
से वासना और
विकारों का त्याग
करना होता है।
इस दृष्टि से
उस युवती को
कंधे पर बिठाकर
नाला पार करा
देने वाला भिक्षु
ही सही अर्थों
में संन्यासी है।
दूसरे भिक्षु का
मन तो विकार
से भरा हुआ
था। हम अपने
मन में समाए
विकारों और वासना
पर नियंत्रण कर
लें, तो गृहस्थ
होते हुए भी
संन्यासी ही हैं।
No comments:
Post a Comment