एक बोध कथा
गृहस्थ या संन्यास
एक
युवक धर्म शास्त्रों
की अपनी पढ़ाई
पूरी करने के
बाद इस उधेड़
बुन में था,
कि अब जीवन
में कौन-सा
मार्ग पकड़े, जिससे
मानव जीवन का
परम लक्ष्य प्राप्त
करने में सुविधा
हो। धर्म ग्रंथों
के अध्ययन से
उसके मन में
जीवन-जगत की
नश्वरता का विचार
बैठ गया था।
लेकिन कई विद्याओं
में दक्षता प्राप्त
करने की वजह
से असमंजस भी
हो रहा था।
बहुत सोच-विचार
करने पर भी
जब वह किसी
नतीजे पर नहीं
पहुंच सका तो
हार कर कबीर
की शरण में
पहुंचा। उसने अपनी
समस्या कबीर साहब
के आगे रखी
और बोला, कई
दिनों से विचार
कर रहा हूं
कि कौन-सा
रास्ता पकड़ूं- गृहस्थ का
या संन्यास का?
कुछ समझ नहीं
आया, तो आपके
पास चला आया।
कबीर
साहब उस वक्त
कपड़ा बुन रहे
थे, युवक का
सवाल तो सुना,
मगर कोई जवाब
न दिया, अपने
काम में लगे
रहे। थोड़ी देर
बाद युवक ने
फिर अपना सवाल
दोहराया, मगर कबीर
पहले की ही
तरह अपने काम
में लगे रहे।
युवक का सवाल
फिर अनसुना कर
दिया। थोड़ी देर
बाद अपनी पत्नी
को आवाज दी,
देखना! मेरा ताना
साफ करने का
झब्बा कहां है?
वो झब्बा ढूंढने
लगी। भरी दोपहर
का वक्त था।
तेज धूप से
आंखें चुंधियाई जाती
थीं। लेकिन तलाश
करने पर भी
कबीर की पत्नी
को झब्बा न
मिला। तब कबीर
साहब ने आवाज
दी, अंधेरा है,
चिराग जला कर
तलाश करो। वो
चिराग तलाश करने
लगी। थोड़ी देर
बाद कबीर साहब
ने अपनी लड़की
और लड़के को
बुलाकर हुक्म दिया, तुम
भी झब्बा की
तलाश करो। वे
भी चिराग लेकर
झब्बा तलाश करने
लगे।
इतने
में कबीर साहब
चिल्लाए, अरे! रहने
दो, झब्बा तो
यहां मेरे कंधे
पर पड़ा है।
तुम सब जा
कर अपना-अपना
काम करो। इस
बीच युवक का
धैर्य जवाब देने
लगा, उसने अपना
सवाल जरा जोर
से दोहराया। तब
कबीर बोले, तुम्हारे
सवाल का जवाब
तो मैं दे
चुका। तुम समझे
नहीं? नौजवान ने
कहा, नहीं, समझा
नहीं पाया। जरा
खोल कर समझाने
का कष्ट करें।
कबीर ने समझाया,
देखो भई, गृहस्थ
बनना चाहते हो
तो ऐसे गृहस्थ
बनो कि तुम्हारे
कहने पर घर
वाले रात को
दिन और दिन
को रात मानने
को तैयार हों,
अन्यथा रोज के
झगड़ों का कोई
फायदा नहीं। गृहस्थ
जीवन का आदर्श
प्रस्तुत करने के
बाद उस युवक
को संन्यास आश्रम
का परिचय देने
के लिए कबीर
उसे ले कर
एक वृद्ध साधु
के पास गए,
जो एक ऊंचे
टीले पर रहता
था। उन्होंने नीचे
से साधु को
आवाज दी, तो
वह बूढ़ा हांफता-कांपता टीले से
नीचे उतरा। कबीर
ने कहा, कुछ
नहीं, बस आपके
दर्शनों के लिए
आया था। साधु
धीरे-धीरे टीले
पर चढ़ने लगा।
वह
ऊपर चोटी पर
पहुंचकर अपनी कुटिया
में बैठने भी
न पाया था
कि कबीर ने
नीचे से फिर
आवाज दी। साधु
फिर लड़खड़ाता हुआ
टीले से नीचे
उतरने लगा। किसी
भी प्रकार की
परेशानी या बौखलाहट
का भाव चेहरे
पर लाए बिना,
बड़े शांत, स्थिर
और मिठास भरे
लहजे में उसने
पूछा, कहिए, क्या
आज्ञा है? कबीर
ने कहा, एक
बात मन में
आई थी, सोचा
था उस के
बारे में खुल
कर बात करूं,
लेकिन उसके लिए
समय नहीं है।
फिर कभी बात
करूंगा। साधु फिर
ज्यों-त्यों करके
टीले पर चढ़ने
लगा। अभी उसने
आधी चढ़ाई तय
की थी कि
कबीर ने फिर
आवाज दी। साधु
फिर उतने ही
शांत भाव से
वापस नीचे उतरने
लगा। तब कबीर
ने उस युवक
से कहा, और
साधु बनना हो
तो ऐसे बनो।
इतना धैर्य, इतनी
शांति, इतनी क्षमा
हृदय में हो।
इस साधु की
तरह खुशी-खुशी
मुसीबत बर्दाश्त करने की
ताकत हो तो
संन्यास में भी
प्रवेश कर सकते
हो।
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