Saturday, December 15, 2012


एक बोध कथा

एक आदमी के घर एक संन्यासी मेहमान आयाएक परिव्राजक। रात को बातें हुईं। उस परिव्राजक ने कहा, “तुम यहाँ क्या छोटी-मोटी खेती में लगे हो। साइबेरिया में मैं यात्रा पर था तो वहाँ जमीन इतनी सस्ती है कि मुफ्त ही मिलती है। तुम यह जमीन वगैरह छोड़कर साइबेरिया चले जाओ। वहाँ हजारों एकड़ जमीन मिल जाएगी। बड़ी ज़मीन में मनचाही फसल उगाओ। और लोग वहाँ के इतने सीधे-सादे हैं कि करीब-करीब मुफ्त ही जमीन दे देते हैं।

उस आदमी के मन में लालसा जगी। उसने तुरंत ही सब बेच-बाचकर साइबेरिया की राह पकड़ी। जब पहुँचा तो उसे बात सच्ची मालूम पड़ी। उसने वहां के ज़मींदारों से कहा, “मैं जमीन खरीदना चाहता हूँ।वे बोले, “ठीक है। जमीन खरीदने का तुम जितना पैसा लाए हो उसे मुनीम के पास जमा करा दो। जमीन बेचने का हमारा तरीका यह है कि कल सुबह सूरज के निकलते ही तुम चल पड़ो, और सूरज के डूबते तक जितनी जमीन घेर सकते हो घेर लो। वह सारी जमीन तुम्हारी होगी। बस चलते जाना, चाहो तो दौड़ भी लेना। भरपूर बड़ी जमीन घेर लेना और सूरज के डूबते-डूबते ठीक उसी जगह पर लौट आना जहाँ से चले थे। बस यही शर्त है। जितनी जमीन तुम घेर लोगे, उतनी जमीन तुम्हारी हो जाएगी।

यह सुनकर रात-भर तो सो सका वह आदमी। कोई और भी नहीं सो पाता। ऐसे क्षणों में कोई सोता है? रात भर वह ज्यादा से ज्यादा ज़मीन घेरने की तरकीबें लगाता रहा। सुबह सूरज निकलने के पहले ही भागा। उसका कारनामा देखने के लिए पूरा गाँव इकट्ठा हो गया था। सुबह का सूरज ऊगा, वह भागा। उसने साथ अपनी रोटी भी ले ली थी, पानी का भी इंतजाम कर लिया था। रास्ते में भूख लगे, प्यास लगे तो सोचा था चलते ही चलते खाना भी खा लूँगा, पानी भी पी लूँगा। रुकना नहीं है; चलना भी नहीं है, बस दौड़ते रहना है। सोचा उसने, चलने से तो आधी ही जमीन कर पाऊँगा, दौड़ने से दुगनी हो सकेगीवह भागाबहुत तेज भागा

उसने सोचा था कि ठीक बारह बजे लौट पड़ूँगा, ताकि सूरज डूबते-डूबते पहुँच जाऊँ। बारह बज गए, मीलों चल चुका है, मगर वासना का कोई अंत है? उसने सोचा कि बारह तो बज गए, लौटना चाहिए; लेकिन सामने और उपजाऊ जमीन, और उपजाऊ जमीनथोड़ी सी और घेर लूँ तो क्या हर्ज़ है! वापसी में ज्यादा तेज़ दौड़ लूँगा। इतनी ही बात है, फिर तो पूरी ज़िंदगी आराम ही करना है। एक ही दिन की तो बात है।

उसने पानी भी पीया, क्योंकि उसके लिए रुकना पड़ेगा। सोचा, एक दिन की ही तो बात है, बाद में पी लेंगे पानी, फिर जीवन भर पीते रहेंगे। उस दिन उसने खाना भी खाया। रास्ते में उसने खाना भी फेंक दिया, पानी भी फेंक दिया, क्योंकि उनका वजन भी ढोना पड़ा रहा है, इसलिए दौड़ ठीक से नहीं पा रहा है। उसने अपना कोट भी उतार दिया, अपनी टोपी भी उतार दी, जितना हल्का हो सकता था हो गया।

एक बज गया, लेकिन लौटने का मन नहीं होता, क्योंकि आगे और अच्छी ज़मीन नज़र आती है। लेकिन लौटना तो था ही, दोपहर के दो बज रहे थे। वह घबरा गया। अब शरीर जवाब दे रहा था। सारी ताकत लगाई; लेकिन ताकत तो चुकने के करीब गई थी। सुबह से दौड़ रहा था, हाँफ रहा था, घबरा रहा था, कि पहुँच पाऊँगा सूरज डूबते तक कि नहीं। सारी ताकत लगा दी। पागल होकर दौड़ा। सब दाँव पर लगा दिया। और सूरज डूबने लगाज्यादा दूरी भी नहीं रह गई है, लोग दिखाई पड़ने लगे। गाँव के लोग खड़े हैं और आवाज दे रहे हैं कि जाओ, जाओ। उत्साह दे रहे हैं, भागे आओ! कैसे देहाती लोग हैं, – सोचने लगा मन में; इनको तो सोचना चाहिए कि मैं मर ही जाऊँ, तो इनको धन भी मिल जाए और जमीन भी जाए। मगर वे बड़ा उत्साह दे रहे हैं कि भागे आओ!

उसने आखिरी दम लगा दीभागा, भागासूरज डूबने लगा; इधर सूरज डूब रहा है, उधर भाग रहा हैसूरज डूबते-डूबते बस जाकर गिर पड़ा। कुछ पाँच-सात गज की दूरी रह गई है; घिसटने लगा।

अभी सूरज की आखिरी कोर क्षितिज पर रह गईघिसटने लगा। और जब उसका हाथ उस जमीन के टुकड़े पर पहुँचा, जहाँ से भागा था, उस खूँटी पर, सूरज डूब गया। वहाँ सूरज डूबा, यहाँ यह आदमी भी मर गया। इतनी मेहनत कर ली! शायद दिल का दौरा पड़ गया। और सारे गाँव के लोग जिन्हें वह सीधा-सादा समझ रहा था, वे हँसने लगे और एक-दूसरे से बात करने लगे!

ये पागल आदमी आते ही जाते हैं! इस तरह के पागल लोग आते ही रहते हैं!”

यह कोई नई घटना थी, अक्सर लोग जाते थे खबरें सुनकर, और इसी तरह मरते थे। यह कोई अपवाद नहीं था, यही नियम था। अब तक ऐसा एक भी आदमी नहीं आया था, जो घेरकर जमीन का मालिक बन पाया हो। उस गाँव के लोगों के खाने-कमाने का जरिया थे ऐसे आदमी।

यह कहानी तुम्हारी कहानी है, तुम्हारी जिंदगी की कहानी है, सबकी जिंदगी की कहानी है। यही तो तुम कर रहे होदौड़ रहे हो कि कितनी जमीन घेर लें! बारह भी बज जाते हैं, दोपहर भी जाती है, लौटने का भी समय होने लगता हैमगर थोड़ा और दौड़ लें। भूख की फिक्र है, प्यास की फिक्र है।

जीने का समय कहाँ है? पहले जमीन घेर लें, पहले तिजोरी भर लें, पहले बैंक में रुपया इकट्ठा हो जाए; फिर जी लेंगे, फिर बाद में जी लेंगे, एक ही दिन का तो मामला है। और कभी कोई नहीं जी पाता। गरीब मर जाते हैं भूखे, अमीर मर जाते हैं भूखे, कभी कोई नहीं जी पाता। जीने के लिए थोड़ा सुकून चाहिए। जीने के लिए थोड़ी समझ चाहिए। जीवन मुफ्त नहीं मिलता। जीने के लिए बोध चाहिए.

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