Stories from Upanisads-2
प्रजापति की न समझी और मानवता के दुर्भागया की कहानी उस दिन ही आरम्भ हो गयी जब दिति के रहते उन्होंने अदिति को पत्नी बनाने का निश्चय किया । दिति वन्ध्या तो थी नहीं । उसने एक से एक बलवान बच्चे प्रजापति को दे रखे थे, पर दूसरी पत्नी (अदिति) ने आते ही वह जादू किया कि घर में रोज तकरार होने लगी । और जब अदिति की संताने बड़ी हुयी तो माताए तो पीछे हट गयी, भाईयों में तकरार होने लगी ।
दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए सारा कसूर दूसरों के सिर डालते हुए प्रजापति को अपने पक्ष में लाने के लिए उन्हें सिखा पढ़ा कर उनके पास भेज देती । वह दोनों को समझा बुझा कर भेजते तो अगले दिन दोनों नया झगडा लेकर पहुँच जाते । भाई जैसा कोई हितेषी तो होता नहीं, भाई जैसा दुश्मन भी न होता होगा ।
एक बार तकरार छिड़ गयी तो दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं । हर चीज को अपने कब्जे में करने या दूसरे से छीनने की कोशिस । दूसरे के हर काम को बिगाडने का प्रयत्न । पुश्त दर पुश्त चलती रहती है उनकी तकरार । हर काम एक दूसरे को नीचा दिखाने या परास्त करने के किये जाने लगते हैं । इनमे से एक दूसरे को जब तक मिटा या पूरी तरह झुका नहीं देता तब तक तकरार का अंत नहीं होता ।
प्रजापति की इन दोनों पत्नियों से पैदा हुयी संतानों का भी यही हाल था । देवता एक तो बुढेती की संतान थे, इसलिए कमजोर थे । दूसरे ये संख्या में भी असुरों से कम थे । उन्हें रोने और शोर मचाने की आदत भी थी । बात बात पर बिसूरते हुए प्रजापति के पास पहुँच जाते, "असुरों ने हमें मारा" । हमारे साहित्य का आधा उनकी बचाओ बचाओ की गूँज से भरा है और बांकी आधा उनको बचाने के लिए प्रजापति या भगवान् की कारगुजारियों से । वे असुरक्षा की भावना से इस तरह ग्रस्त रहने लगे थे की असुर आपस में हंसते- बोलते तो वह भी उन्हें ललकार के रूप में ही सुनाई देता था । उनके पास एक ही काम रह गया था । असुरों को नीचा दिखाने का । वे उनको परास्त करने के लिए तरह तरह के उपाय करते रहते थे । हम्मे से कई लोग नहीं जानते कि दुनियां की आधी बुराइयां असुरों को पराजित करने के लिए देवताओं द्वारा की गयी खुराफातों और बांकी आधी देवताओं से अपना बचाव करने के लिए असुरों द्वारा किये गए उपायों से पैदा हुयी हैं ।
कहानी और दर्शन जहां साथ साथ आते हैं और दर्शन बाद में निचोड़ के रूप में आता है । पर यहाँ कहानी दर्शन से नहीं, अदर्शन और अदर्शनीय से शुरू होती है और प्राणी विज्ञान में प्रकट होती है, इसलिए आरम्भ में ही दर्शन को ला दें तो वह परदे का काम करता है । जहाँ परदा जरूरी है वहां परदाप्रथा के विरोधियों को भी परदे की हिमायत करनी होगी । अतः यह उस तरह की कहानी बन जाती है जो निचोड़ से शुरु होकर कहानी से समाप्त होती है ।
पहली झलक से लगता है कि यह तीन की संख्या का जादू है । हर चीज को तीन में बाँट कर या तीन गुना करके देखने की प्रवृति भारतीय मानुस को इस तरह से ग्रस रही है कि इसके चलते वे देवताओं को भी तीन से तैंतीस और फिर तैंतीस करोड़ करते हुए पल तक नहीं झपकाते । यह दुनियां बड़ी जटिल है और एक एक संख्या को ले कर चलें तो हर संख्या के जादुई असर का सवाल आयेगा । पर केवल इसी आधार पर किसी कथन पर विचार ही न करना उससे भी अधिक खातार्नाख जादू के असर में रहने का प्रमाण है । इसको खारिज करने की कोशिस तो अपने बुजुर्ग भी द्वयं वा इंद तृतीयमस्ति कह कर करते हैं, पर उन्हें भी अक्सर इस तीसरे को स्वीकार करना पडा है, और संभवतः यह तीसरा दो की अपेक्षा अधिक् श्रेयकर भी हो ।
देवों और असुरों के बीच मनुष्यों की तरह ।
सुगंध और दुर्गन्ध के बीच गंध्हीनता की तरह ।
सत्य और झूठ को प्रकट करने वाली भाषा से अलग लालितय को प्रकट करने वाली भाषा की तरह । ईद तीसरे की सिदधि के लिए अधिक साधना की आवाश्य्कता होती है , शायद ।
असुरों और देवताओं में अंतर तो था ही कि असुर स्वभाव के सीधे -साधे थे । वे एक दूसरे पर भरोंसा भी करते थे।
देवता कइयाँ थे, अपने हिस्से को लेकर आपस में ही लड़ते रहते थे । वे एक दूसरे से छोटी मोटी बेईमानी करने से बाज़ नहीं आते थे, इनमे छोटे बड़े का लिहाज़ नहीं किया जाता था, जैसे असुरों के बीच था । सबसे छोटा इंद्र, अग्नि, वरुण, और रूद्र आदि प्राचीन देवताओं को भी धता बता कर आगे निकलने की कोशिस में लगा रहता था । वह सफल भी हो गया था, पर इससे छोटा देवता, उपेन्द्र या विष्णु इससे भी तेज़ निकला और इसकी ऐयाशी के लिए अलका की एक छोटी सी नगरी देकर पूरे संसार का अधिपत्य उससे छीन लिया और तब से इन्द्र इतना शक्की हो गया कि उससे किसी को भला काम करते देखकर ही दहशत हो जाती है कि वह उसका स्वर्ग छीनने के लिए ही ऐसा कर रहा है । किसी को तपस्या करते देखकर वह घबरा उठता है कि वह दिनकर की कविता - हटो व्योम के पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं - का जाप तो नहीं कर रहा है ।
सारी शरारत देवताओं की और सारा कलंक असुरों के माथे ।
इस कहानी को यहीं ख़त्म हो जाना चाहिए था, क्योंकि यहाँ आकर तो फलागम भी हो गया जिसके आगे की गुन्जाईस किसी नाटकीय से नाटकीय नाटक में नहीं होती । पर ऐसा संभव नहीं लगता । यह एक पिटारी है, जैसे किसी मूल्यवान हीरे को इस पिटारी में रखकर बंद कर दिया जाए उसी तरह असली कहानी को इस पिटारी में बंदकर रखा गया है ।
देवताओं और असुरों की यह कहानी ऊपर से देखने पर जीतनी भी सरल दिखे, भीतर से यह खासी जटिल है । संभव है, यह प्रजापति स्रीष्टि का रचियता नहीं , मनुष्य का अपना ही मस्तिस्क हो । दिति और अदिति उसकी अपनी बुद्धि व् आत्मा हो । आसुरी शक्तियाँ मनुष्य की अपनी ही जैव प्रवृत्तियाँ हो जो अधिक प्राचीन और अधिक शक्तिशाली तो हैं ही । देवता उसकी अन्त्श्चेतना और विवेक का या सद्प्रवृतियों का ही दूसरा नाम हो जो मनुष्य के आत्मिक उत्थान में इन असुरों या जैव प्रवृतियों को बाधक पा कर उनका दमन करने, नियंत्रित और अनुशासित करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहती हों । उनके प्रयत्न तो बार बार विफल तो होते हैं, पर देवता या विवेक सम्प्पन और अपने आत्मिक उत्ठान के लिए कटिबद्ध व्यक्ति निरंतर उनका दमन और संयमन करने के प्रयत्न में लगा रहता है और यदि अप्रमाद इस प्रयत्न में लगा रहे तो अंततः उसकी साधना सफल भी होती है ।
यह नितांत संभव है कि यह मनुष्य के अपने ही आंतरिक द्वन्द की कथा हो जिसमे उसका नैतिक विवेक उसके जैव तकाजों और दबाओं से निरंतर संघर्ष करता हुआ अपने को ऊपर उठाने के लिए प्रयत्न शील रहता है । यह संभव है कि यह उत्तरकथा पढ़ते हुए किसी को देवता के रूप में नहीं अपितु गांधी जी के बंदरों की तरह दिखाई देने लगें पर हमारी समस्या यह है कि यदि समस्या मात्र शुभ और अशुभ की ही है, तो दो पक्ष होने चाहिए । यह तीसरा पक्ष क्या है, जिसे छिपा कर अपने पास रख लेती है ? सभी के तीन विभाग क्यों किये ? दस क्यों नहीं ?
"अध्यात्मिक शरीर विज्ञान "
परमेश्वर की स्वरूपभूता अर्थात जगत की उत्पत्ति , स्थिति और लय की हेतुभूता ब्रह्मा , विष्णु , और शिवरूपा शक्ति । कैसी शक्ति ? सत्व , रजस , और तमस से युक्त । सत्वादि गुणरूप उपाधी के कारण ही वह
सत्व से विष्णु ,
रजस से ब्रह्मा और
तमस से महादेव कहा जाता है ।
ये सब स्वत: निरुपाधिक ब्रह्म से तो उपलब्ध हो ही नही सकते । परब्रम के ही सृष्टि आदि कार्यों को करते हैं । इसलिए अवस्थाभेद के आधार पर इनमे शक्ति भेद का व्यवहार होता है, त्वातिक भेद के कारण नहीं । अर्थात परब्रह्म पाहिले तो ईश्वर स्वरुप मायामय रूप से स्थित होता है। त्वातिक भेद के कारण नहीं । अर्थात परब्रहम पाहिले तो ईस्वर स्वरुप मायामय रूप से स्थित होता है । फिर वह मूर्तरूप हो कर तीन प्रकार का हो जाता है । उस त्रिविध रूप में वह जगत की उत्पत्ति, स्थिति, संहार नियमाआदि कार्य करता है ।
ये तीनों देवता - तेज, जल, और अन्न - पुरुष को प्राप्त हो कर त्रिवृत -त्रिवृत हो जाते हैं । यही है "अध्यात्मिक शरीर विज्ञान"
जो भोजन हम करते हैं वह तीन प्रकार का हो जाता है ।
उसका स्थूल भाग मल हो जाता है ।
मध्य भाग मांस और चर्बी बन जाता है और जो
सूक्षम भाग है वह मन हो जाता है ।
जैसे मथे हुए दही का सूक्ष्म भाग नवनीत बन कर ऊपर आ जाता है और वही मन बनता है । यदि तुम्हारी जीविका भ्रष्ट साधनों से चलती है तो तुम उससे होने वाले क्षय और उपद्रव को देख भी नहीं सकते \ देखोगे भी तो उधर ध्यान न दोगे । दुसरे ध्यान दिलाएंगे भी तो भ्रष्टता का समर्थन करोगे या चुप लगा जाओगे ।
(कहावत है की जैस्सा खाओ अन्न वैसा हो मन )
पीया हुआ जल तीन प्रकार का हो जाता है ।
इसका स्थूल भाग मूत्र,
मध्य भाग रक्त और
शूक्षम भाग प्राण हो जाता है ।
खाया हुआ घृत आदि तीन प्रकार का हो जाता है ।
इसका स्थूल भाग हड्डी हो जाता है ।
मध्या भाग मज्जा बन जाता है और
सूक्षम भाग वाणी हो जाता है ।
इसी प्रकार पिए हुए जल का सूक्ष्म भाग ऊपर आकर प्राण बन जाता है । जल को इसी लिए तो प्राण और बादल को प्रजन्य कहते हैं । और भक्षण कए हुए तेज या घृत का सूक्ष्म भाग ऊपर आ कर वाणी का रूप लेता है । इसी के बल पर ऋषि- मुनि शाप दे कर किसी को भस्म तक कर डालते हैं ।
इसलिए मन अन्नमय है, प्राण जलमय है और वाणी तेजोमय है ।
मन - व्यक्ति के संकल्प -विकल्प और विचारों को मन कहते हैं । मन विचारों का समूह है और सब सब विचारों से "मैं" का विचार ही मन की जड़ है \ मन का कोई अपना रंग रूप नहीं है । जिस रंग में रंगों वैसा ही रंगने को तैयार है । मन की उड़ान बहूत ऊंचीं है । मन व्यक्ति को आशा तृष्णा रुपी दो सवानो के पीछे दोड़ता ही रहता है । जिस वस्तु की ओर हमारा ध्यान होगा, उस वास्तु का हमें ज्ञान होगा । शरीर की त्वचा से मिलकर मन को सर्दी गर्मी का अनुभव होता है । मन पारे की तरह बड़ा चंचल है । यदि थोड़ा सा पारा भूमि पर रख दो तो इसके कई छोटे छोटे टुकड़े हो जायेंगे जो अलग अलग दिशाओं में भागेंगे । दोबारा उनको इक्कठा करना कोई आसान काम नहीं । मन बलि है और उसको एकाग्र करना कठिन है। लेकिन अभ्यास और वैराग्य के द्वारा ही मन को लगाम डाली जा सकती है।
In
vedic literature 3 steps are very significant.
प्रजापति की न समझी और मानवता के दुर्भागया की कहानी उस दिन ही आरम्भ हो गयी जब दिति के रहते उन्होंने अदिति को पत्नी बनाने का निश्चय किया । दिति वन्ध्या तो थी नहीं । उसने एक से एक बलवान बच्चे प्रजापति को दे रखे थे, पर दूसरी पत्नी (अदिति) ने आते ही वह जादू किया कि घर में रोज तकरार होने लगी । और जब अदिति की संताने बड़ी हुयी तो माताए तो पीछे हट गयी, भाईयों में तकरार होने लगी ।
दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए सारा कसूर दूसरों के सिर डालते हुए प्रजापति को अपने पक्ष में लाने के लिए उन्हें सिखा पढ़ा कर उनके पास भेज देती । वह दोनों को समझा बुझा कर भेजते तो अगले दिन दोनों नया झगडा लेकर पहुँच जाते । भाई जैसा कोई हितेषी तो होता नहीं, भाई जैसा दुश्मन भी न होता होगा ।
एक बार तकरार छिड़ गयी तो दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं । हर चीज को अपने कब्जे में करने या दूसरे से छीनने की कोशिस । दूसरे के हर काम को बिगाडने का प्रयत्न । पुश्त दर पुश्त चलती रहती है उनकी तकरार । हर काम एक दूसरे को नीचा दिखाने या परास्त करने के किये जाने लगते हैं । इनमे से एक दूसरे को जब तक मिटा या पूरी तरह झुका नहीं देता तब तक तकरार का अंत नहीं होता ।
प्रजापति की इन दोनों पत्नियों से पैदा हुयी संतानों का भी यही हाल था । देवता एक तो बुढेती की संतान थे, इसलिए कमजोर थे । दूसरे ये संख्या में भी असुरों से कम थे । उन्हें रोने और शोर मचाने की आदत भी थी । बात बात पर बिसूरते हुए प्रजापति के पास पहुँच जाते, "असुरों ने हमें मारा" । हमारे साहित्य का आधा उनकी बचाओ बचाओ की गूँज से भरा है और बांकी आधा उनको बचाने के लिए प्रजापति या भगवान् की कारगुजारियों से । वे असुरक्षा की भावना से इस तरह ग्रस्त रहने लगे थे की असुर आपस में हंसते- बोलते तो वह भी उन्हें ललकार के रूप में ही सुनाई देता था । उनके पास एक ही काम रह गया था । असुरों को नीचा दिखाने का । वे उनको परास्त करने के लिए तरह तरह के उपाय करते रहते थे । हम्मे से कई लोग नहीं जानते कि दुनियां की आधी बुराइयां असुरों को पराजित करने के लिए देवताओं द्वारा की गयी खुराफातों और बांकी आधी देवताओं से अपना बचाव करने के लिए असुरों द्वारा किये गए उपायों से पैदा हुयी हैं ।
कहानी और दर्शन जहां साथ साथ आते हैं और दर्शन बाद में निचोड़ के रूप में आता है । पर यहाँ कहानी दर्शन से नहीं, अदर्शन और अदर्शनीय से शुरू होती है और प्राणी विज्ञान में प्रकट होती है, इसलिए आरम्भ में ही दर्शन को ला दें तो वह परदे का काम करता है । जहाँ परदा जरूरी है वहां परदाप्रथा के विरोधियों को भी परदे की हिमायत करनी होगी । अतः यह उस तरह की कहानी बन जाती है जो निचोड़ से शुरु होकर कहानी से समाप्त होती है ।
पहली झलक से लगता है कि यह तीन की संख्या का जादू है । हर चीज को तीन में बाँट कर या तीन गुना करके देखने की प्रवृति भारतीय मानुस को इस तरह से ग्रस रही है कि इसके चलते वे देवताओं को भी तीन से तैंतीस और फिर तैंतीस करोड़ करते हुए पल तक नहीं झपकाते । यह दुनियां बड़ी जटिल है और एक एक संख्या को ले कर चलें तो हर संख्या के जादुई असर का सवाल आयेगा । पर केवल इसी आधार पर किसी कथन पर विचार ही न करना उससे भी अधिक खातार्नाख जादू के असर में रहने का प्रमाण है । इसको खारिज करने की कोशिस तो अपने बुजुर्ग भी द्वयं वा इंद तृतीयमस्ति कह कर करते हैं, पर उन्हें भी अक्सर इस तीसरे को स्वीकार करना पडा है, और संभवतः यह तीसरा दो की अपेक्षा अधिक् श्रेयकर भी हो ।
देवों और असुरों के बीच मनुष्यों की तरह ।
सुगंध और दुर्गन्ध के बीच गंध्हीनता की तरह ।
सत्य और झूठ को प्रकट करने वाली भाषा से अलग लालितय को प्रकट करने वाली भाषा की तरह । ईद तीसरे की सिदधि के लिए अधिक साधना की आवाश्य्कता होती है , शायद ।
असुरों और देवताओं में अंतर तो था ही कि असुर स्वभाव के सीधे -साधे थे । वे एक दूसरे पर भरोंसा भी करते थे।
देवता कइयाँ थे, अपने हिस्से को लेकर आपस में ही लड़ते रहते थे । वे एक दूसरे से छोटी मोटी बेईमानी करने से बाज़ नहीं आते थे, इनमे छोटे बड़े का लिहाज़ नहीं किया जाता था, जैसे असुरों के बीच था । सबसे छोटा इंद्र, अग्नि, वरुण, और रूद्र आदि प्राचीन देवताओं को भी धता बता कर आगे निकलने की कोशिस में लगा रहता था । वह सफल भी हो गया था, पर इससे छोटा देवता, उपेन्द्र या विष्णु इससे भी तेज़ निकला और इसकी ऐयाशी के लिए अलका की एक छोटी सी नगरी देकर पूरे संसार का अधिपत्य उससे छीन लिया और तब से इन्द्र इतना शक्की हो गया कि उससे किसी को भला काम करते देखकर ही दहशत हो जाती है कि वह उसका स्वर्ग छीनने के लिए ही ऐसा कर रहा है । किसी को तपस्या करते देखकर वह घबरा उठता है कि वह दिनकर की कविता - हटो व्योम के पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं - का जाप तो नहीं कर रहा है ।
सारी शरारत देवताओं की और सारा कलंक असुरों के माथे ।
इस कहानी को यहीं ख़त्म हो जाना चाहिए था, क्योंकि यहाँ आकर तो फलागम भी हो गया जिसके आगे की गुन्जाईस किसी नाटकीय से नाटकीय नाटक में नहीं होती । पर ऐसा संभव नहीं लगता । यह एक पिटारी है, जैसे किसी मूल्यवान हीरे को इस पिटारी में रखकर बंद कर दिया जाए उसी तरह असली कहानी को इस पिटारी में बंदकर रखा गया है ।
देवताओं और असुरों की यह कहानी ऊपर से देखने पर जीतनी भी सरल दिखे, भीतर से यह खासी जटिल है । संभव है, यह प्रजापति स्रीष्टि का रचियता नहीं , मनुष्य का अपना ही मस्तिस्क हो । दिति और अदिति उसकी अपनी बुद्धि व् आत्मा हो । आसुरी शक्तियाँ मनुष्य की अपनी ही जैव प्रवृत्तियाँ हो जो अधिक प्राचीन और अधिक शक्तिशाली तो हैं ही । देवता उसकी अन्त्श्चेतना और विवेक का या सद्प्रवृतियों का ही दूसरा नाम हो जो मनुष्य के आत्मिक उत्थान में इन असुरों या जैव प्रवृतियों को बाधक पा कर उनका दमन करने, नियंत्रित और अनुशासित करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहती हों । उनके प्रयत्न तो बार बार विफल तो होते हैं, पर देवता या विवेक सम्प्पन और अपने आत्मिक उत्ठान के लिए कटिबद्ध व्यक्ति निरंतर उनका दमन और संयमन करने के प्रयत्न में लगा रहता है और यदि अप्रमाद इस प्रयत्न में लगा रहे तो अंततः उसकी साधना सफल भी होती है ।
यह नितांत संभव है कि यह मनुष्य के अपने ही आंतरिक द्वन्द की कथा हो जिसमे उसका नैतिक विवेक उसके जैव तकाजों और दबाओं से निरंतर संघर्ष करता हुआ अपने को ऊपर उठाने के लिए प्रयत्न शील रहता है । यह संभव है कि यह उत्तरकथा पढ़ते हुए किसी को देवता के रूप में नहीं अपितु गांधी जी के बंदरों की तरह दिखाई देने लगें पर हमारी समस्या यह है कि यदि समस्या मात्र शुभ और अशुभ की ही है, तो दो पक्ष होने चाहिए । यह तीसरा पक्ष क्या है, जिसे छिपा कर अपने पास रख लेती है ? सभी के तीन विभाग क्यों किये ? दस क्यों नहीं ?
परमेश्वर की स्वरूपभूता अर्थात जगत की उत्पत्ति , स्थिति और लय की हेतुभूता ब्रह्मा , विष्णु , और शिवरूपा शक्ति । कैसी शक्ति ? सत्व , रजस , और तमस से युक्त । सत्वादि गुणरूप उपाधी के कारण ही वह
सत्व से विष्णु ,
रजस से ब्रह्मा और
तमस से महादेव कहा जाता है ।
ये सब स्वत: निरुपाधिक ब्रह्म से तो उपलब्ध हो ही नही सकते । परब्रम के ही सृष्टि आदि कार्यों को करते हैं । इसलिए अवस्थाभेद के आधार पर इनमे शक्ति भेद का व्यवहार होता है, त्वातिक भेद के कारण नहीं । अर्थात परब्रह्म पाहिले तो ईश्वर स्वरुप मायामय रूप से स्थित होता है। त्वातिक भेद के कारण नहीं । अर्थात परब्रहम पाहिले तो ईस्वर स्वरुप मायामय रूप से स्थित होता है । फिर वह मूर्तरूप हो कर तीन प्रकार का हो जाता है । उस त्रिविध रूप में वह जगत की उत्पत्ति, स्थिति, संहार नियमाआदि कार्य करता है ।
ये तीनों देवता - तेज, जल, और अन्न - पुरुष को प्राप्त हो कर त्रिवृत -त्रिवृत हो जाते हैं । यही है "अध्यात्मिक शरीर विज्ञान"
जो भोजन हम करते हैं वह तीन प्रकार का हो जाता है ।
उसका स्थूल भाग मल हो जाता है ।
मध्य भाग मांस और चर्बी बन जाता है और जो
सूक्षम भाग है वह मन हो जाता है ।
जैसे मथे हुए दही का सूक्ष्म भाग नवनीत बन कर ऊपर आ जाता है और वही मन बनता है । यदि तुम्हारी जीविका भ्रष्ट साधनों से चलती है तो तुम उससे होने वाले क्षय और उपद्रव को देख भी नहीं सकते \ देखोगे भी तो उधर ध्यान न दोगे । दुसरे ध्यान दिलाएंगे भी तो भ्रष्टता का समर्थन करोगे या चुप लगा जाओगे ।
(कहावत है की जैस्सा खाओ अन्न वैसा हो मन )
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