Thursday, July 26, 2012

Story from UPANISHAD

आरम्भ में एक अकेला सत ही था । उसके अलावा कोई दूसरा नहीं था और उसका होना भी न होने जैसा ही था, इसलिए कुछ लोग कहते हैं कि आरम्भ में एकमात्र असत ही था और उस असत से ही सत की उत्पत्ति हुई । वेद में एक पूरा सूक्त है जिसमे इस असत से सृष्टी के अविभ्राव की बात की गयी है। परन्तु क्या असत से सत की उत्त्पति हो सकती है ? इसलिए यह समझो की , वह जो आरम्भ में एक और अद्वितीय था वह सत ही था। क्योंकि सत से ही सत की उत्त्पति हो सकती है।

"फिर उसने विचार किया, मैं बहु हो जाऊं, बहु रूप हो जाऊँ ।" यह विचार आने पर उसने अपने भीतर से ही तेज़ उत्तपन किया । वही विचार तेज़ के मन में आया कि वह अनेक हो जाए और अनेक रूपों में व्यक्त हो । इस विचार आने पर उसने जल मो उत्त्पन्न किया । सुनाने में यह कुछ उलटी बात लगेगी पर यदि ध्यान दो तो ताप होने पर शरीर से पसीना आने लगता है । तेज़ से जल की उत्तपत्ति भी इसी तरह हुयी । जल के मन में भी वही विचार आया कि वह अनेक हो और उनके रूपों में व्यक्त हो सो उसने अन्न की रचना की । यही कारण है कि जल की वर्षा से ही अन्न उत्तपन्न होता है।

क्योंकि अन्न की उत्तपति हो जाने पर अन्नाद या अन्न खाने वाले न पैदा हो जाएँ, यह संभव ही नहीं है । यही है प्राणियों की सृष्टी । प्राणियों के जनम के तीन बीज होते हैं और तीन भेद अंडज , जीवाज, और उद्विभ्ज हैं । तो उस सत ने विचार किया कि वह इन तीनो में प्रवेश करके नाम और रूप को व्यक्त करे । इसलिए उसने तेज़, जल और अन्न में से एक एक को त्रिवृत किया । इस तरह अग्नि का जो रोहित या लाल रूप है _ वह तेज़ रूप है, जो शुक्ल रूप है, वह जल रूप है और जो कृषण रूप है वह अन्न रूप है । इस तरह इन रूपों में व्यक्त होने के बाद अग्नि का अग्नित्वा या उसकी दाहकता उससे निकल गयी । ये अग्नि के विकार मात्र कहने को है । सच यह है कि ये केवल तीन रूप हैं।

ठीक यही बात आदित्य पर, चंद्रमा पर और विद्युत् पर लागू होती है । उसके भी लाल, श्वेत और कृषण वर्ण क्रमश: तेज़, जल और अन्न के ही रूप हैं । इस त्रिवृतत्व को जान लेने के बाद ही हमारे पूर्ववर्ती महाग्रिह्स्तों और महाश्रोत्रियों ने कहा था कि हमारे कुल में कोई बात अश्रुत और अज्ञात नहीं है ।

अकेलाथा इसलिए रमण किससे करता । अब इस एकाकीपन से बाहर आने के लिए उसने दूसरे की इच्छा की । वह आत्ममंथन से इतना विकल हो गया कि आत्म्नद्ध सा हो गया । विकलता असहाय हो गयी तो उसने अपने को ही चीर कर दो भागों में बाँट दिया और यहाँ से सुरु हुआ खुराफातों का असली दौर । यहाँ पैदा हुए पति और पत्नि । आदम की पसली से नहीं, परम पुरुष तो पाहिले से था, पर अलंगी था। सर्जक पुरुष स्त्री से पाहिले नहीं उसी के भीतर से हुआ। एक ही क्रिया से \ एक साथ। जब दुनियां में दो ही प्राणी हों और उन दोनों से बाहर निर्मम समाज नाम की तीसरी चीज गायब हो तो सामाजिक मर्यादाओं के निर्वाह की आशा करना बेकार है ।

इसके बाद एक विचित्र लुका छिपी का खेल आरम्भ हुआ । इस खेल ने दुनियां को नाना जीवों- जंतुओं से भर दिया । कहानीकार पर विश्वास करें तो हुआ यह की वह प्रथम स्त्री जो पुरुष के शारीर से उत्प्पन हुयी उसका नाम शतरूपा था । उसको शतरूपा नाम उसके नाना रूप धारण करने के बाद मिला हो सकता है ।
शतरूपा को सामाजिक मर्यादा और शिष्टाचार का उस समय भी ज्ञान था जब समाज अस्तित्व में नहीं आया था और जब पुरुष अपने पागलपन में अपने को संभाल ही नहीं पा रहा था । शतरूपा ने सोचा यह मुझे अपने से ही उत्तपन करके मुझसे समागम क्यों करता है ? उसने तय किया कि वह छिप कर अपनी शीलरक्षा करेगी । यदि उस समय जंगल झाडी आदि पैदा हो चुके होते तो उसे छुपने के लिए अपना रूप न बदलना पड़ता । नहीं थे, इसलिए उसने अपने को छिपाने का और कोई तरीका न देख कर गाया का रूप धारण कर लिया । उसके गाय हो जाने पर मनु आदि ने वृषभ का रूप धारन कर लिया और इसके बाद जो कुछ हुआ उसका परिणाम यह कि गाय और बेल पैदा होने लगे । यह प्रयोग विफल होने पर भी उसकी समझ में यह बात नहीं आयी कि रूप बदलने और छिपने से कोई लाभ नहीं । उसने घोड़ी का रूप ले लिया और मनु को घोड़ा बनना पडा । इससे अश्व जाती उत्त्पन्न हुयी । फिर वह गद्रभी और मनु गदर्भ । इस तरह एक खुर वाले पशु पैदा हुए। फिर शतरूपा बकरी बन गयी और मनु को भेडा बनना पडा । इस तरह एक एक करके चिटी से लेकर हाथी तक जितने भी जीव हैं उन सब की उत्त्पति हुयी । पर कोई भी रूप धारण करके शतरूपा चैन से न रह पायी । ऊपर से उसे कबीर जैसे के ताने भी सहने पड़े जो उसे ठगिनी वगैरह कह कर गालियाँ देते रहे पर एक बार रुक कर सोचने कर सोचने को तैयार न हुए की शरारत उनके पूर्वरूप ने आरम्भा की थी और इसके लिए उन्हें अपने पर शर्म आणि चाहिए।

शतरूपा का चरित्र उज्जवल था और उसने इसकी रक्षा के लिए हर संभव प्रयत्न किये, पर आदि मानव की कामोंम्त्तता के कारण वह अपने सम्मान की रक्षा में सफल नहीं हप पायी । जब दुनियां में दो ही प्राणी हों और उन दोनों से बाहर निर्मम समाज नाम की तीसरी चीज गायब हो तो सामाजिक मर्यादाओं के निर्वाह की आशा करना बेकार है ।

पर सतरूपा की कहानी का गहरा सम्बन्ध विश्वदर्शन से है। सच कहें तो शतरूपा के शील् भंग की घटना न घटती तो न तो द्रष्ट। होते , न दृश्य, न ही दर्शन । वह कहने को एक मादा ही रहती है और कहने को साक्षात् विश्वमाया या प्रकृति ।

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