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विभिन्न धर्मों , सम्पर्दयों , मतों और सभ्यताओं के अर्न्तगत ध्यान अथवा पूजा -उपासना के मध्यम से मन को एक स्थान पर केंद्रित करने की बताई गयी विधिओं का वास्तविक सम्बन्ध इसी शक्ति से है ।
यह अलग बात है की ध्यान -उपासना करने वाले भी अक्सर इसका असली उद्देश्य नही जानते हैं । मोहन्जोदडो और हद्दप्पा जैसी अति प्राचीन सभ्यताओं में इस शक्ति की जानकारी मनुष्यों को होने के सबूत हैं . चीन के साधक इसे शताब्दियों से ‘ची ’ के नाम से जानते हैं , जब की जापान में अन्नंत उर्जा को ‘की ’ कहा जाता रहा है । इसाई धर्म के अनुयाई मनुष्य में पवित्र आत्मा का अस्तित्वा स्वीकारते हुए उस की पूजा करते हैं . हकीकत तो यह है की मनुष्य के ख़ुद के भीतर मौजूद शक्ति पर न तो किसी सम्पर्दाया विशेष का अधिकार है और न ही यह जाती , धर्म , देश और काल की सीमाओं से बंधी जा सकती है .
धर्म्निर्पेल्श हमें सिखाते हैं की अंतरमुखी बनो, बहिर्मुखी नही । मगर वे आम लोगों को यह समझा पाने में विफल रहते हैं की अंतर्मुखी बनाना क्या है , और इसे कैसे बना जाता है । अपने भीतर झांक कर वहां छिपी विलक्षण शक्ति के भण्डार को जानना -समझना और बाहर के साधनों की बजाय अपने में मौजूद संपदा का इस्तेमाल प्रारम्भ करना ही ब्यवहारिक रूप से अंतर्मुखी होना है । यही कारण है की बहिर्मुखी व्यक्ति की सारी क्षमताएं साधनों -उपकारो की क्षमता तक ही सिमित रह सकती है , जब की अंतर्मुखी व्यक्ति की पहुँच इन सीमाओं से भी परे है ।
बहिर्मुखी -अंतर्मुखी के बीच की सीमा रेखा के बीच की तरफ़ संसारिकता है तो दूसरी और से सिद्धियाँ प्रारम्भ हो जाती है । मनुष्य अपनी इन्द्रयों की क्षमता से परे जा कर भी बहुत कुछ कर सकता है । इसी को ‘अतीन्द्रिय ’ कहा जाता है और अतीन्द्र्य शक्तियों से युक्त मनुष्यों को सिद्ध पुरूष ।
इसे विडम्बना ही कहा जाएगा की बुनियादी रूप से एक ही लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए स्थापित विभिन्न सम्पर्दाया आज इतने ज्यादा विकृत हो गए हैं की वे सवयं खून -खराबे , दंगे , अशांती और विनाश का कारण बनने लगे हैं । धर्म के नाम पर एक - दूसरे को मारने – काटने से भी नही चूकते हैं । अंतर्मुखी होना तो दूर की बात है , लोग धर्म और जाती का मतलब व उद्देश्य तक भूल चुके है, अंतर्मुख , धर्म जाती , सांसारिक इत्यादि -इत्यादि से तो पहले हमें जानना है हमारे इर्द -गिर्द , बाहर का दृश्य ।
मनुष्य दोनों के साथ -साथ है , शरीर भी और आत्मा के भी । पूर्व इसी अधूरी और अधार्मिक धारणा के कारण ही आज भौतिक रूप से दीं -हीन हो गया है , और पश्चिम अपनी एकांगी दृष्टी के कारण आज हिंसा और ऊब से भर गया है । धर्म कहता है की शरीर तो परमात्मा का निवास है । बिना घर जाए कोई घर के मालिक से नही मिल सकता ।
आज का सभ्य मनुष्य नाखूनों से नही लड़ता , लेकिन क्या अनुबम और उद्जन बम उसी के भयंकर नाखून नही हैं ? पिछले तीन हज़ार वर्षों में पञ्च हज़ार युद्ध आदमी ने किए हैं । दो महायुद्धों में लगभग दस करोड़ लोगों की ह्त्या हुई है ।
आज भी इतनी सामग्री ( TNT, RDX, PE, Atom bomb, Hydrozoan’s Bomb etc.etc.) है की हमारे जैसी एक हज़ार प्रिथियों को नष्ट किया जा सकता है । और यह सब उसने शान्ति और सुरक्षा के लिए किया है । क्या आदमी अन्दर से कुछ बदला है ?
मनुष्य बिल्कुल नही बदला । लगता है मनुष्य सोचने में कही बुनियादी भूल कर रहा है । वह बुनियादी भूल यह है की वह सोचता रहा है समस्याओं के मूल कारण बाहर है । धर्म कहता है की मनुष्य की समस्याओं की जड़ें उसके अन्दर ही है ।
इस्वर पूर्ण है । नित्य है । सर्वत्र है । सर्वव्यापी है । सभी दोषों से मुक्त है .
इश्वर सचिदानंद स्वरुप है । यह सारा संसार इश्वर , जीव और पृकृति के मेल का खेल है । पृकृति केवल (सत्स्वरूप ) है । जीव सत + चित + स्वरुप = सतचित स्वरुप है । इस्वर सत + चित + आनंद + सचिद आनंद स्वरुप है । प्रकृति जड़ है । उसे आनंद की आवश्यकता नही । जीव चेतन है । इसे आनंद की विशेष आवश्यकता है ।
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