धार्मिक
नहीं अध्यात्मिक
बनें
धर्म और अध्यात्म में अंतर - धारण
किया जाए वही धर्म है । धर्म व्यक्ति के अंतरतम में परिवर्तन लाता है । यह व्यक्ति के सद्गुण बढाता है । इससे आस्था और श्रधा पैदा होती है । इस तरह धर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है । लेकिन धर्म के ठेकेदारों ने धर्म को अलग अलग भागों में बाँट दिया । फिर जो धर्म आपस में जोड़ने के लिए था, वही
व्यक्ति को व्यक्ति से लड़ाने के लिए बन गया और व्यक्ति धर्म के वास्तविक अर्थ से दूर हट गया । अब धर्म केवल बाहर के रीती- रिवाजों पूजा पाठ या अनुष्ठानों तक सिमित हो गया और धीरी धीरे उसमें आडम्बर, पाखण्ड, दिखावा आ गया । व्यक्ति सोचता है कि मंदिर मंदिर मस्जिद, गुरुद्वारे या चर्च जाना ही धर्म है । यह सब धर्म नहीं, बल्कि धर्म के प्रति हमारी आस्था को पक्का करने की एक जगह है ।
हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि केवल मंदिर जाने से चित में परिवर्तन नहीं आता । मन और उसके विकार तो ज्यों के त्यों ही रहते हैं। इसके लिए मंदिर के जाने के साथ-साथ अध्यात्मिकता की आवश्यकता भी होती है । अध्यात्म अपने शुद्ध स्वरुप में टिकने की प्रक्रिया है । मंदिर में जाकर हम दिखावे के धार्मिक बन सकते हैं, अध्यात्मिक
नहीं । इसके लिए सत्संग में गुरु से ज्ञान पाना जरूरी है । अध्यात्म की उंचाईयों पर पहुँचने के लिए यह प्रक्रिया अनादि काल से चली आ रही है। इससे व्यक्ति अपने शुद्ध-बुद्ध सत -चित-आनंद स्वरुप का अनुभव करता है । अध्यात्म भीतर के विकारों को दूर कर जीवन जीने का तरिका सिखाता है, जिससे
व्यक्ति की मन बुद्धि निर्मल हो जाती है । अध्यात्म में बाहर का दिखावा, आडंबर,
कर्मकांड नहीं होता । आप जहां हैं बस अपने भीतर के साथ जुड़कर आप अध्यात्मिक हो सकते हैं । इसलिए मेरा मानना है कि व्यक्ति को धार्मिक नहीं, अध्यात्मिक
बनना चाहिए ।
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