Sunday, February 23, 2020




परीक्षा हमारी या बच्चों की!

संस्कृत में परीक्षा शब्द की व्युत्पत्ति है- 'परितः सर्वतः, ईक्षणं-दर्शनम् एव परीक्षा।' अर्थात् सभी प्रकार से किसी वस्तु या व्यक्ति के मूल्यांकन अथवा अवलोकन को परीक्षा कहा जाता है। पढ़ने, देखने और सुनने में सिर्फ एक साधारण सा शब्द है-परीक्षा। लेकिन जो कोई भी परीक्षा के दौर से गुजरता है, उसे इन तीन अक्षरों में ही या तो तीनों लोक या फिर इसके परे एक अलग ही लोक नजर आने लगता है। बच्चे हो या सयाने जिन्दगी में परीक्षा के दौर से कभी कभी सबको ही गुजरना पड़ता है। आजकल कुछ ऐसे ही दौर से गुजरना पड़ रहा है। साल का पहला माह जनवरी तो यूं ही जनजनाती निकल गई लेकिन जब फरवरी फरफराती हुई आई तो वसंत के साथ-साथ बच्चों की परीक्षा ऋतु लेकर भी गई, जिसके परिणामस्वरूप अच्छे खासे घर में भूचाल आकर अघोषित कर्फ्यू जैसा माहौल बन गया है। बच्चों के साथ-साथ अपनी भी परीक्षा की घडि़यां आन पड़ी हैं। बच्चों के साथ-साथ हम भी घर में कैद होकर रह गए है। बच्चों की परीक्षा की तैयारी में जुते रहने से कभी-कभी मन में भ्रम की स्थिति में रहता है कि मूलरूप से यह परीक्षा बच्चों की है या हमारी! एक प्रश्न पत्र खत्म होते ही दूसरे प्रश्न पत्र की तैयारी के लिए आफिस से छुट्टी लेकर किताब-कापियों में सर खपाकर कम्प्यूटर पर माडल पेपर तैयार करना और उसके बाद सामने बड़ी मुस्तैदी के साथ हल करवाना कोई हंसी-खेल का काम नहीं है।

छोटे बच्चों के साथ यह समस्या रहती है कि उन्हें बड़े बच्चों की तरह तो परीक्षा की चिन्ता रहती है और नहीं प्रश्न पत्र का भय। जिसके कारण यह समस्या बन जाती है कि बच्चों को किस तरह से पढ़ाया जाय, रटाया जाय। पढ़ाने-रटाने से पहले खुद रटना और फिर रटाना पड़ता है। उन्हें कभी समझा-बुझाकर, कभी डांट-डपटकर और कभी बहला-फुसलाकर टीवी और कम्प्यूटर बन्द करके दूर रखना पड़ता है जिसके लिए कभी-कभी अपनी तो नानी क्या परनानी भी याद आने लगती है। वैसे जब कभी गुस्सा फूट पड़ता है तो आपको बता दूं कि दो बच्चों में एक लाभ तो जरूर है कि एक को डांट-डपट या एक-आध चपत लग गई तो समझो दूसरा अपने आप चुपचाप सही राह पकड़ लेता है।

परीक्षा के इन दिनों देर रात तक पढ़ने-पढ़ाने, रटने-रटाने का सिलसिला तब तक चलता रहता है जब तक बच्चे ऊंधते-ऊंघाते वहीं लुढ़क नहीं जाते हैं। देर रात तक बच्चों को पढ़ाने के चक्कर में सुबह समय पर जगाना भी कम मशक्कत का काम नहीं है! कभी-कभी तो छोटी उठते ही बांसुरी की वह तान छेड़ देता है जिसे सुनकर टिफिन तैयार करते हुए सुबह-सुबह सिर चकराने लगता है। तब मन में तो आता है कि एक-आध थप्पड़ जड़ ही दिया जाए, लेकिन जब सामने आकर उसका मासूम रूंआसा चेहरा देखता हूं तो दया जाती है और फिर ख्याल आता है कि इस समय लाड़-प्यार, समझा-बुझाकर कर चुप कराना ही उचित है वर्ना मन विद्रोही होने पर परीक्षा में जाने क्या-क्या उल्टा-पुल्टा लिखकर जायेंगी और हमारी सारी मेहनत धरी की धरी रह जायेगी। बखूबी समझ गया हूं कि समय रहते यदि उनका मनोविज्ञान समझने की भूल कर बैठा तो यह भूल बहुत मंहगी साबित होगी।

यदि बच्चों को पढ़ाना कला की श्रेणी में आता है तो मेरे अनुभव के अनुसार छोटे बच्चों को पढ़ाना एक विशिष्ट कला के साथ ही विज्ञान भी है। कला इसलिए क्योंकि इसमें नए-नए तरीकों की सृजन की आवश्यकता पड़ती है और विज्ञान इसलिए कि इसमें क्रमबद्ध तरीके से प्रत्येक पाठ का सुव्यवस्थित ढंग से पढ़ाने का पूरा-पूरा ध्यान रखना पड़ता है। इधर अगर जरा भी चूक हुई तो उधर विपरीत परिणाम आने की पूरी संभावना रहती है।

इन परीक्षा के दिनों में बच्चों के साथ-साथ अपनी भी परीक्षा समान्तर रूप से चल रही है। घर के अन्य तमाम गैर जरूरी काम निपटाते हुए बच्चों को रटाने-लिखाने में रात-दिन कैसे बीत रहे हैं इसका कुछ पता नहीं! अब तो आखिरी प्रश्न पत्र का बेसब्री से इंतजार है तभी थोड़ी बहुत राहत मिल सकेगी। उसके बाद चैन की सांस तो तभी ले पायेंगे जब परीक्षा का अनुकूल परिणाम निकलेगा।

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