Shraadh श्राद्ध
आजकल श्राद्ध का समय है । कई लोग इस बारे में बात करते हैं की क्या होता है श्राद्ध । हम क्यों देते हैं । यह तो पंडितों की बनाई रीत है कई की कुछ और सोच है वास्तविकता जाने बगैर किसी को क्या पता ।
पदम् पुराण में एक सृष्टि खंड है उसमे इस बारे में लिखा है । पितरों का श्राद्धकर्म किस प्रकार शास्त्रोक विधि से करमा चाहिए । इसका विस्तृत विवरण इसमे दिया है । इस पर्व में नर्मदा को पितरिकर्म व पिंडदान के लिए विशेष रूप से प्रशस्त माना गया है । श्राद्ध या पितरिकर्म में चांदी अथवा चांदी से युक्त पात्रों का, स्वधा शब्द का, दक्षिण दिशा का अप्सब्या यज्ञोपवीत का, तिल दान का विशेष महत्व माना गया है, जो पितरों को सर्वदा संतुष्ट करता है । पितरों के श्राद्ध में कुश, उड़द, गाय का दूध, घी, मधु, मूंग, गन्ना और सफ़ेद फूल का प्रयोग अति शुभ व मंगल फलदायक माना गया है ।
पितरिकर्म में विशेष ध्यान देने रखने वाली बात यह भी है की चाहे मनुष्य कितना भी धनवान और साम्र्द्याशाली हो, उसे श्राद्ध में केवल एक ब्रह्मण को ही भोजन कराना चाहिए । श्राद्ध में विस्तार नही होना चाहिए ।
कईयों के मन में संसय रहता है की मनुष्य जो कुछ भी पितरों को अर्पण या तर्पण करते हैं, जल तो जल में चला जाता है, पिंडदान में पिंड तो यहीं पृथ्वी पर पडा रहता है । भोजन तो ब्रह्मण खाता है, फ़िर यह सब पितरों को कैसे प्राप्त हो जाता है । हम इसे कैसे मान लें ।
I
have written in my blog dated Friday, July 31, 2009 Human
Physiology (अध्यात्मिक शरीर विज्ञान ) If you have read it, you will not
have doubt, and such thought will never come to your mind. But one has to read
it in a proper way. Because the meaning of the writting is not in the words of
the article. The meaning of the article is running side by side in silence
between the words, between the lines, in the gaps. If you are in a state of
meditativeness if you are not only reading a fiction but you are encountering
the whole religious experience of a great human being, absorbing it; not
intellectually understanding it. The words are there but they become secondary.
Something else becomes primary: the silence that those words create. The words
affect your mind, and the music goes directly to your heart.”
Reading
an article like the article is an art by itself. And these articles to be read
by the heart, not by the mind. The articles in my blog not to be understood,
but experienced. This is something phenomenal.
So
therefore my dear देवता
और
पितृ
केवल
गंध
व
रस
से
ही
तृप्त
हो
जाते
हैं
।
अन्न
या
जल
का
केवल
सार
तत्वा
वह
ग्रहण
करते
हैं,
स्थूल
तत्वा
नही
।
जिस
प्रकार
मानव
अन्न
खाता
है
और
उसका
सूक्ष्म
भाग
यानी
सार
तत्वा
ही
शरीर
ग्रहण
करता
है,
शेष
तो
स्थूल
रूप
मल
मार्ग
से
त्याग
दिया
जाता
है
।
यही
सूक्षम
तत्वा
अन्नमय,
प्राणमय
व
मनोमय
आदि
कोशो
को
पुष्ट
करता
है
।
(Please read Blog articleof Thursday, June 18, 2009 Human
physiology with the Veda) इसी सूक्षम तत्वा की शक्ति को पितृ स्पर्श मात्र से अवशोषित कर लेते है । (चांदी में किसी भी प्रकार उष्मा को बहुत शीघ्रता से अवशोषित व उत्सर्जित करने की क्षमता होती है । यही कारण है की स्पर्श ग्राहक पितरों के लिए श्राद्ध के समय चांदी के बर्तन का प्रावधान है ।)
फिर कई लोग प्रश्न उठाते हैं की पितृ भी तो कर्मों के आधीन होते हैं, सम्भव है की उनका किसी योनी में कंही और पुनर्जन्म हो गया हो या वह स्वर्ग या नर्क में हों, ऐसे में वह कैसे आकर स्पर्श द्बारा सार तत्वा ग्रहण करेंगे और वरदान देंगे ?
यह संच है की पितृ कर्मों के आधीन हैं, परन्तु पितृ भी दो प्रकार के हैं - नित्य और अनित्य। अनित्य पितृ या स्वर्ग्वाशी माता -पित्ता, दादा - दादी आदि अनेक सगे सम्बन्धी तो निश्चित रूप से कर्मानुसार विभिन्न लोकों और योनियों में होते है, परन्तु नित्य पितृ 7 हैं, जो कर्मसः चारों वर्णों में मूर्त रूप ब्राह्मण, क्षत्रिया, वैश्य क्षुद्र और तीन अमूर्त देवता, असुर और यक्ष रूप में होते है । यही सातों पितृ संकल्प के समय अनित्य पितरों के भाग का श्राद्ध ग्रहण करके वह पितृ जिस योनी में व जिस स्थिति में और जहाँ कहीं भी स्तिथ होता है, उसे उसी रूप में पहुंचा देते हैं और वरदान भी यह नित्य पितृ देते हैं । अतः पितरों को मंत्रों के द्बारा शास्त्र सम्मत विधि से प्रतिग्रह प्रदान करना चाहिए । जल व कुश सम्बन्ध भी दोनों के लिए अनिवार्या है, अन्यथा दान को दैत्य शक्तियां नष्ट कर देती हैं ।
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