पर भगवान् है
कहाँ
?
अपनी
दृष्टी
की
परिधि
में
यत्र
तत्र
हम
जो
कुछ
भी
जड़
व्
चेतन
बिखरा
हुआ
पाते
हैं,
सभी परम पिता
परमात्मा
की
कृति
हैं
।
वही
समस्त
सृष्टि
का
रचियता
है
।
उसकी
सभी
रचनाओं
में
मानव
को
सर्वश्रेष्ठ रचना
माना
गया
है
।
मानव
ही
एक
ऐसा
प्राणी
है,
जिसने
विकास
व्
उन्नति
की
लम्बी
दौड़
में
अनेक
ऊँचाइयों
को
छुआ
है,
प्रकृति
के
अनेक
रहस्यों
का
उदघाटन
किया
है,
धरती
के
गर्भ
में
उतरा
है,
और
आसमान
की
अप्रतिमं
ऊँचाइयों
तक
पहुंचा
है
।
परन्तु
उन्नति
की
इस
दौड़
को
पार
करने
के
बाद
भी
अशांत
व्
दुःखी
है
। किसी अज्ञात सुख की खोज में लगा रहता है । लेकिन उस परम सुख की परछाई भी उसे नज़र नहीं आती । आखिर
ऐसा
क्यों
? ऐसा
इसलिए
कि
इंसान
सुख
कहाँ
ढूंडत़ा
है
- नाम
और
शौहरत
में,
धन
दौलत
में,
रिश्ते
नातों
में
।
लेकिन
इन
सब
में
सुख
कहाँ
है
? सुख
तो
परमात्मा
के
चरणों
में
है,
उसकी
भक्ति
में
है,
खुद
को
उस
के
हवाले
कर
देने
में
है
।
भक्ति समस्त सुखों का स्रोत है । यह समस्त परितापों से परित्राण का साधन है । परमात्मा सर्वव्यापक है । एक तृण में भी है, एक कण में भी है,
एक
पशु
में
भी
है
और
एक
पक्षी
में
भी
है
। उदाहरण के लिए हमारे आसपास वातावरण में हवा व्याप्त है । इस हवा में
अनेक
प्रकार
की
तरंगें भी पाई जाती हैं । इनमे ध्वनि तरंगें भी हैं जिन्हें ‘Vibrations’ भी कहा जाता है । ये तरंगें सूक्ष्म हैं और इन्हें हम अपने कानों से यूँ ही नहीं सुन सकते । हमारी इन्द्रियाँ इतनी सवेदनशील नहीं हैं । अतः इन तरंगों को कर्णगोचर बनाते हेतु एक यंत्र बनाया जाता है, जिसमे एक खाश प्रकार का संवेदनशील पुर्जा लगा होता है । उसमे यह क्षमता होती है कि
वह
इन
तरंगों
को
धारण
करके, शब्दों में परिवर्तित करके इन्हे हमारे सुनने लायक बनाता है । इसी कारण Radio/Transmitters, को Tune करके हम वांछित संगीत व् सन्देश सुन पाते हैं ।
अब यूँ तो इंसान ने विज्ञान के माध्यम से अनेकों यंत्र व् मशीनें बनाई हैं, परन्तु प्रतेक मशीन में यह क्षमता नहीं है कि वह ऐसी ध्वनि तरंगों को धारण कर सके और उन्हें सुनाने लायक बना सके । ठीक इसी प्रकार परमात्मा सर्व व्यापक है । परन्तु उसे देखने की विशेष क्षमता व् संवेदनशीलता चाहिए । खाश पुर्जा चाहिए ।
हम परमात्मा का साक्षात्कार कर सुखी हो सकते हैं । परन्तु इसके लिए एक भेदी की आवश्यकता होती है । जो बता सके कि वास्तु कहाँ है और उसकी प्राप्ति कैसे होगी ? भक्ति के क्षेत्र में यह भेदी एक पूर्ण सतगुरु है जो हमारा मार्ग दर्शन करके हमें अन्तर्मुखी करके मानव तन के भीतर ही आकाश स्थल पर ब्रह्म स्थान में ही परमात्मा का साक्षात्कार करवा देते हैं ।
इसी विषय में कबीर दास जी कहते हैं- बाहर के आसमान
से
ईश्वर
को
किसी
ने
नहीं
पाया
।
जिसने
भी
पाया
मानव
तन
के
भीतर
ही
पाया
।
अतः
आवश्यकता
है
अन्तर्मुखी
हो
कर
खोजने
की,
ईश्वर
वहीं
मिलेगा
भीतर
के
आकाश
में
।
यह
मानव
तन
ही
मंदिर
है,
मस्जिद
है,
गुरुद्वारा
और
गिरजाघर
है
।
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