Saturday, June 22, 2013


सृष्टि निर्माण और जिज्ञासा

मानव स्वभाव से ही जिज्ञासु है । उसकी उत्कृष्ट जिज्ञाशा ने ही उसे अकल्पनीय तथ्यों का जानकार बनाया है । संभवतः देव-दानव अवधारणा के पीछे भी यही मानवीय जिज्ञासु प्रवृति सक्रीय रही । प्रवृति मार्ग की उत्कृष्ट जिज्ञासा की अति शायद दान्वत्व में परिणित हुयी होगी और निवृतीं मार्ग की अति देवत्व में । भौतिक- अध्यात्म, देव-दान्वत्व, जन्म-मरण, आदि समानांतर धाराएं हैं । 

इसी जिज्ञासु प्रवृति ने कभी मानव मन को मोड़ दिया इस अबूझ पहेली की ओर की मानव क्या है ? सृष्टि क्या है ? इसका निर्माण कब ? क्यों ? कैसे हुआ ? इसका उत्तर उसे भौतिक जगत से नहीं मिला । वह दूसरी समानांतर धारा- अध्यात्म की ओर मुदा और वहां उसे आशा की किरण दिखाई पड़ी । कबीर के मुख से यह मुखरित हुआ- 'जिन ढूंढा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ, जो बोरा डूबन डरा रहा  बैठ'। कपिल, पातांजलि आदि दार्शनिकों ने अपनी खोज और अनुभव के आधार पर इस गूढ़ सृष्टि की व्याखा  की, घोषणा की कि जैसे भौतिक-अध्यात्म, जन्म-मृत्यु, दिन रात दो समानांतर धाराएं हैं - प्रकृति और पुरुष इन धाराओं के सामंजस्य से ही सृष्टि का अस्तित्व रहता है । उन्नत विज्ञान भी आज कई रहस्यों, कई गूढ़ प्रश्नों में किंकर्तव्यविमूढ़ सा दिखता है । मसलन,

१. सृष्टि निर्माण कब, क्यों, कैसे और क्या इसका अंत है ?
२. मानव, प्राण, आत्मा क्या है ?
३.  क्या ईश्वर, परमात्मा जैसी कोई अपरोक्ष सत्ता विद्यमान है 
४. यदि हाँ, तो मानवीय बुद्धि इसको अनावृत करने में सक्षम है ?

इन प्रश्नों पर आज का विज्ञान भी चुप्पी साध लेता है । वह इनके पक्ष विपक्ष में मुखरित होने से कतराता है । ये प्रश्न आज के नहीं, वरन जब से मानव ने अपना अस्तित्व जाना होगा, तभी से मानव बुद्धि को उद्वेलित करते रहे हैं । परिणामतः अध्याय जैसी विद्या ने जनम लिया । सभी ने अपने अपने ढंग से इन्हें बताया । उपनिषदों ने जहां इसे समझने के लिए अन्तः प्रक्रिया अपनाई, वहीं  पुराणों, स्मृतियों ने कर्मकांड, आचार, मूर्त उपासना एवं पूजा पद्धति अपनाई । दोनों अपने-अपने स्तरों पर महत्वपूर्ण हैं । 

जन सामान्य जहां मूर्त वस्तु चित्र को आराध्य मानकर पंचोपचार,  षोडशोपचार, सखाभाव, स्वामी-सेवक  भाव आदि संबंधों का  अवलंबन करके अपने आराध्य तक पहुँचने का प्रयास करता है, वहीं अध्यात्मवादी एक गुन्तीत परम चेतन सत्ता को केंद्र मान कर खोज करता है । वह भाव से नहीं बल्कि  सिद्धांत, तर्क, तथ्य एवं अनुभव की कसौटी पर चलता है । उस परम सत्ता को स्व-स्वरुप अनुभव किया जाता है ।  यहीं पर आत्मा परमात्मा, जीव-ब्रह्म का द्वेत समाप्त होता है । इस धारा के अनुसार अज्ञानतावश द्वैत जान पड़ता है । 

आत्मा-स्वरूप जान लेने पर जीव सर्वज्ञ ही जाता है । वहां रहस्य 'रहस्य ' नहीं रह जाता है, सभी पहेलियाँ सुलझ जाती हैं । इसी

क्रम में सृष्टि-निर्माण-प्रक्रिया को सभी मतों में अपने-अपने ढंग से उपस्थित किया गया, मगर कमोवेश सभी ने एक परमसत्ता को केंद्र माना है । न्याय वैशेषिक सृष्टि के मूल में परमाणु को माना है । इसके मतानुसार परमाणु आपस में संघनित हो कर अनु रूप होता है, अनु मिलकर  स्थूल रूप पाकर मुद्गल (भौतिक सृष्टि रूप) में परिणित हो जाते हैं और क्रमशः इनका विखंडन सृष्टि ले है । अंत में फिर वाही बचता है जो नित्य है । वेदांत के अनुसार मूल तत्व 'ब्रह्म' ही है । ब्रह्म जब माया से आर्वित्त हो जाता है तब वह 'ईश्वर ' कहलाता है ।

यह ईश्वर ही सृष्टि का कारण है । इसी से सूक्ष्मतम मात्राएँ व् आकाश उत्पन्न होता है । आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, तथा जल से पृथ्वी । इन सूक्ष्म मात्राओं से सूक्ष्म शरीर और सूक्ष्म शरीर से स्थूल शरीर की उत्पति हुयी । प्रतेक स्थूल में पांच महाभूतों (पृथ्वी, जल, तेज़, वायु एवं आकाश) की आंशिक और अनिवार्य सहभागिता होती है । अर्थात निर्गुण, निराकार ब्रह्म मयायुक्त ईश्वर होता है । और यह ईश्वर ही पंचमहाभूतों के माध्यम से सृष्टि का कारण बनता है । सांख्य-योग मूलतः प्रकृति-पुरुष को सृष्टि का कारण मानता है ।

पुरुष एवं प्रकृति का सम्मिलित उपक्रम ही सृष्टि है । दोनों एक दुसरे के बिना सृष्टि निर्माण में सर्वथा असमर्थ हैं । पुरुष, चेतन किन्तु निष्क्रिय है । प्रकृति, जड़ किन्तु क्र्यशील है, क्योंकि वह सत्व-राज एवं ताम त्रिगुणात्मिका है । पुरुष में कोई गुण नहीं हैं । एक निष्क्रिय चेतन दूसरा सक्रिय जड़ । दोनों एक दूसरे के पूरक । इनके संयोग से प्रथमतः महतत्व (बुद्धि) उत्पन्न होता है ।  महतः से अहं । अहं से ही पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ एवं मन । ताम प्रधान से पंच महाभूत उत्पन्न होते हैं । राज प्रधान अहं दोनों में सहायक होता है । यानि इन तत्वों से ही सृष्टि निर्माण होता है ।

सृष्टि का प्रारंभ व् सृजन की प्रक्रिया का परमात्मा या ब्रह्म से प्रस्फुटन ही सर्ग का वन्य विषय है । पृथ्वी कहाँ से प्रकट हुयी ? पञ्च तत्वों का कैसे अविर्भाव हुआ ? पंच तत्वों से पञ्च तन्मात्राओं की रचना किस प्रकार हुयी ? स्वेदज, अंदाज़, व् जरयाज़ जीव कैसे प्रकट हुए ? मैथुनी सृष्टि का प्रारंभ कैसे हुआ ?  इस मैथुनी सृष्टि का चार युगों में कैसे क्रमशः विकास हुआ ?   

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