शबद और
कीर्तन
गुरुद्वारा
में शबद और
कीर्तन गाने की
बहुत ही समृद्ध
परम्परा है ।
वहां रागी जन
शब्द गायन के
लिए खुद धुनें
बनाते हैं ।
उसके लिए रागों
का शास्त्र निर्धारित
है । वे
दूसरों द्वारा रचित या
लोकप्रिय धुनों की नक़ल
नहीं करते ।
कभी सोचा है
कि गुरुद्वारों में
शब्द और पाठ
के लिए गायन
को इतना महत्वपूर्ण
क्यों माना गया
है ? असल में
अध्यात्म में संगीत
का वही स्थान
है जैसे जीवन
में आत्मा का
। आत्मा के
बिना शरीर व्यर्थ
है, तो संगीत
से रहित अध्यात्म
स्वादहीन और अधूरा
। संगीत अध्यात्म
वह सोपान है
जिस पर आरोहित
हो कर साधक
परमांनन्द को प्राप्त
करता है ।
पुराणों में लिखा
है कि कृष्ण
ने नारद को
कहा था कि,
ना तो मैं
बैकुंठ में वास
करता हूँ और
ना योगियों के
ह्रदय में ।
मेरा वास वहां
होता है जहां
मेरे भक्त संगीत
करते हैं ।
गुरुग्रंथ
साहिब विश्व में
अन्य धर्म ग्रंथों
से इस अर्थ
में विशिष्ट जय
कि उसकी सम्पूर्ण
वाणी ही शास्त्रीय
संगीत के 31 रागों
में रची गयी
है । जब
इस अलौकिक वाणी
का गायन कीर्तन
किया जाता है
तो गायक और
श्रोता को एक
स्वर्गीय आनंद की
अनुभूति होती है
और उसका 'स्व'
भाव तिरोहित हो
जाता है ।
रह जाता है
तो सिर्फ समर्पण
और 'उसे' पाने
की चाह ।
इसलिए गुरुबाणी में
कीर्तन को अमूल्य
हीरा और आनंद
प्रदान करने वाला
गुणों का खजाना
कहा गया है
।
गुरुग्रंथ
साहिब की वाणी
में कुल 31 और
कई मिश्रित रागों
का प्रयोग हुआ
है । इनमें
श्रीराग, गुजरी, देवगंधारी, सारेठ,
धनासरी, टोडी, बिलाबल, नट,
केदारा, भैरो, बसंत, सारंग,
मल्हार, कल्याण, प्रभाती और
जैजैवंती जैसे रागों
का समावेश किया
गया है ।
सिख गुरुओं ने
रागों के चयन
और वाणी में
उनके प्रयोग के
समय भाव सैद्धान्तिकता
का पूर्ण ख्याल
रखा और उन्होंने
वाणी के प्रत्येक
पद में अभिव्यक्त
विचारों की दशा
के अनुकूल ही
शास्त्रीय रागों का चयन
किया । अर्थात
भाव और राग
के बीच उन्होंने
पूर्ण तालमेल रखा
और कहीं भी
उन्हें परस्पर विरोधी नहीं
होने दिया ।
मसलन हर्ष, और
उल्लास के भावों
की अभिव्यक्ति के
लिए उन्होंने सुही,
बिहागढ़ा, विलावल, मल्हार, बसंत अदि
रागों का इस्तेमाल
किया तो करुण,
शांत और गंभीर
भावों वाली वाणी
की रचना उन्होंने
प्रायः गउड़ी, श्रीरामकली, भैरों
आदि रागों में
की । इसी
प्रकार विशुद्ध धार्मिक भावों
की अभिव्यक्ति के
लिए गुजरी, धनासरी,सोरठ, आदि तथा
उत्साह भाव के
लिए आसा, माझ,
प्रभाती आदि रागों
का प्रयोग किया
।
सिख
गुरुओं ने वाणी
रचना के लिए
एक सरल और सहज
मार्ग की अपेक्षा
शास्त्रीय संगीतमयता का मार्ग
क्यों चुना ? वाणीकार कोई साधारण
पुरुष नहीं थे
। और न
ही उनकी अनुभूति
साधारण थी ।
उस असाधारण ।
अलौकिक अनुभूति को जो
सीधी परम सत्ता
से जोड़ती है, प्रकट
करने के लिए
एक ऐसा साधन
आवश्यक था, जो
परमात्मा की तरह
सर्वव्यापक हो ।
ऐसा एक साधन
'नाद' था ।
गुरुवाणी में उसी
नाद के लिए
'शबद' नामक शब्द
का प्रयोग हुआ
है ।
राग
और गुरुवाणी में
यह तथ्य गौरतलब
है कि वाणीकार
गुरुओं ने घोर
श्रीन्गारिक उद्देशों के प्रयोग
होने वाले रागों
को भी आलौकिक
वाणी के साथ
प्रयुक्त किया ।
मसलन, संगीत दर्पण
में श्रीराग का
वर्णन कामोंन्मादी धीरा
नायिका के रूप
में हुआ है।
यह रोग सांसारिक
लोगों के मन
में वासना और
उन्माद पैदा करता
है । लेकिन
गुरुवाणी में उसी
राग को शिरोमणि
राग का उदात्त
दर्जा देकर उसे
भक्ति और अध्यात्म
के पवित्र लोक
से जोड़ा गया
है, जहां सिर्फ
सात्विक भाव है
। गुरुवाणी में
कहा गया है:
'रागा विच
श्रीराग
है
जो
सच
धरे
प्यार।'
इसी
प्रकार संगीत दर्पण में
राग सोरठ की
उपमा पुष्ट वक्षस्थल
वाली एक ऐसी
नवयौवना से दी
गयी है जिसके
चारों ओर भँवरे
मंडराते रहते हैं
। इसके विपरीत
गुरुवाणी में अध्यात्म
मार्ग के पथिक
को इस रोग
को मोक्ष प्राप्ति
का साधन बताया
गया है ।
इस प्रकार गुरुवाणी
में इस घोर
श्रीं गारिक राग
का भी पूर्ण
आध्यात्मीकरण कर दिया
गया है ।
सोरठ सो
रस
पीजिए
कबहु
न
फीका
होई
।
राम नाम
गुण
गाइये
दरगाह
निर्मल
सोइ
।।
शबद
और कीर्तन के
गायन की यह
अवधारणा अत्यंत सुविचारित है
। इसमें बिलकुल सांसारिक जनों
की ही तरह
उत्तम रागों और
संगीत को उद्दात
भावनाओं तक पहुचने
का निमित माना
गया है ।
इसमे हर्ष, विषाद,
प्रसन्नता या श्रींगार
जैसे सांसारिक भावों
की अनुभूति को
भी खारिज नहीं
किया गया है
। शबद या
कीर्तन के माध्यम
से उसको भक्ति
से जोड़ दिया
है । मधुर
राग में कीर्तन
का गायन और
श्रवण करने वाला
व्यक्ति आनंद की
उस परमावस्था को
प्राप्त कर लेता
है, जो उसे
दरगाही अनुभूति प्रदान कराती
है ।
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