Sunday, April 7, 2013


धार्मिक नहीं अध्यात्मिक बनें  

धर्म और अध्यात्म में अंतर -  धारण किया जाए वही धर्म है धर्म व्यक्ति के  अंतरतम में परिवर्तन लाता है यह व्यक्ति के सद्गुण बढाता है इससे आस्था और श्रधा  पैदा होती  है इस तरह धर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है लेकिन धर्म के ठेकेदारों ने धर्म को अलग अलग भागों में बाँट दिया फिर जो धर्म आपस में जोड़ने के लिए था,  वही व्यक्ति को व्यक्ति से  लड़ाने के लिए बन गया और व्यक्ति धर्म के वास्तविक अर्थ से दूर हट गया अब धर्म  केवल बाहर के रीती- रिवाजों पूजा पाठ या अनुष्ठानों तक सिमित हो गया और धीरी धीरे उसमें आडम्बर, पाखण्ड, दिखावा गया व्यक्ति  सोचता है कि मंदिर मंदिर मस्जिद, गुरुद्वारे या  चर्च जाना ही  धर्म है यह सब  धर्म  नहीं, बल्कि धर्म के प्रति हमारी आस्था को पक्का करने की एक जगह है

हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि केवल मंदिर जाने से चित में  परिवर्तन नहीं आता मन और  उसके विकार  तो ज्यों के त्यों ही रहते हैं। इसके लिए मंदिर के जाने के साथ-साथ अध्यात्मिकता की आवश्यकता भी होती है अध्यात्म अपने शुद्ध स्वरुप में टिकने की प्रक्रिया है मंदिर में  जाकर  हम दिखावे के धार्मिक बन सकते हैं, अध्यात्मिक नहीं  इसके लिए सत्संग में गुरु से  ज्ञान पाना जरूरी है अध्यात्म की उंचाईयों पर पहुँचने के लिए  यह प्रक्रिया अनादि काल से चली रही है। इससे व्यक्ति अपने शुद्ध-बुद्ध सत -चित-आनंद स्वरुप का अनुभव करता है अध्यात्म भीतर के विकारों को दूर कर जीवन जीने का तरिका सिखाता है, जिससे व्यक्ति की मन बुद्धि निर्मल हो जाती है अध्यात्म में बाहर का दिखावा, आडंबर, कर्मकांड नहीं होता आप जहां हैं बस अपने भीतर के साथ जुड़कर आप अध्यात्मिक हो सकते हैं इसलिए मेरा मानना है कि व्यक्ति को धार्मिक नहीं, अध्यात्मिक बनना चाहिए   

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