"अध्यात्मिक
शरीर
विज्ञान
"
(Spiritual Science of Human Physiology)
परमेश्वर
की स्वरूपभूता
अर्थात जगत
की उत्पत्ति
, स्थिति और
लय की
हेतुभूता ब्रह्मा
, विष्णु , और शिवरूपा
शक्ति ।
कैसी शक्ति
? सत्व , रजस , और
तमस से
युक्त ।
सत्वादि गुणरूप
उपाधी के
कारण ही
वह
सत्व से
विष्णु ,
रजस से
ब्रह्मा
और
तमस
से महादेव कहा
जाता है
।
ये
सब स्वत:
निरुपाधिक ब्रह्म
से तो
उपलब्ध हो
ही नही
सकते ।
परब्रम के
ही सृष्टि
आदि कार्यों
को करते
हैं ।
इसलिए अवस्थाभेद
के आधार
पर इनमे
शक्ति भेद
का व्यवहार
होता है,
त्वातिक भेद
के कारण
नहीं ।
अर्थात परब्रह्म
पाहिले तो
ईश्वर स्वरुप
मायामय रूप
से स्थित
होता है।
त्वातिक भेद
के कारण
नहीं ।
अर्थात परब्रहम
पाहिले तो
ईस्वर स्वरुप
मायामय रूप
से स्थित
होता है
। फिर
वह मूर्तरूप
हो कर
तीन प्रकार
का हो
जाता है
। उस
त्रिविध रूप
में वह
जगत की
उत्पत्ति, स्थिति, संहार नियमाआदि
कार्य करता
है ।
ये
तीनों देवता
- तेज, जल, और अन्न - पुरुष को
प्राप्त हो
कर त्रिवृत
-त्रिवृत हो
जाते हैं
। यही
है
"अध्यात्मिक
शरीर
विज्ञान"
जो
भोजन हम
करते हैं
वह तीन
प्रकार का
हो जाता
है ।
उसका
स्थूल भाग मल हो
जाता है
।
मध्य
भाग मांस और
चर्बी
बन जाता
है और
जो
सूक्षम
भाग है
वह मन हो
जाता है
।
जैसे
मथे हुए
दही का
सूक्ष्म भाग
नवनीत बन
कर ऊपर
आ जाता
है और
वही मन
बनता है
। यदि
तुम्हारी
जीविका
भ्रष्ट
साधनों
से चलती है
तो तुम उससे
होने
वाले
क्षय
और उपद्रव को देख
भी नहीं सकते
। देखोगे भी तो
उधर ध्यान न दोगे
। दुसरे ध्यान दिलाएंगे भी तो
भ्रष्टता
का समर्थन करोगे या चुप
लगा जाओगे ।
(कहावत
है की जैसा
खाओ अन्न वैसा
हो मन )
मन
- व्यक्ति के
संकल्प -विकल्प और
विचारों को
मन कहते
हैं ।
मन विचारों
का समूह
है और
सब सब
विचारों से
"मैं" का विचार
ही मन
की जड़
है \ मन का
कोई अपना
रंग रूप
नहीं है
। जिस
रंग में
रंगों वैसा
ही रंगने
को तैयार
है ।
मन की
उड़ान बहूत
ऊंचीं है
। मन
व्यक्ति को
आशा तृष्णा
रुपी दो
सवानो के
पीछे दोड़ता
ही
रहता
है
।
जिस
वस्तु
की
ओर
हमारा
ध्यान
होगा,
उस
वास्तु
का
हमें
ज्ञान
होगा
।
शरीर
की
त्वचा
से
मिलकर
मन
को
सर्दी
गर्मी
का
अनुभव
होता
है
।
मन
पारे
की
तरह
बड़ा
चंचल
है
।
यदि
थोड़ा
सा
पारा
भूमि
पर
रख
दो
तो
इसके
कई
छोटे
छोटे
टुकड़े
हो
जायेंगे
जो
अलग
अलग
दिशाओं
में
भागेंगे
।
दोबारा
उनको
इक्कठा
करना
कोई
आसान
काम
नहीं
।
मन
बलि
है
और
उसको
एकाग्र
करना
कठिन
है।
लेकिन
अभ्यास
और
वैराग्य
के
द्वारा
ही
मन
को
लगाम
डाली
जा
सकती
है।
The
Mind is the internal Organ, and "Mind
is surely made of food, vital force is made of water, and speech is made of
fire"- "Of curd when it is churned, that which is its subtle part
rises upward. That becomes clarified butter. In this very way, of food when it
is eaten, those which is the subtle part, that rises upward, and that becomes
mind"
The
mind is a largely uncharted world a system of unimaginable complexity and
extraordinary powers. Despite the Neurologists and the Psychologists, it
remains as much of a mystery today as ever. The Scientist themselves confess to
be groping in the dark in this field of human knowledge.
The
mind is the crucial conduit between body and soul. In fact experiencing a
tangible rapport with the invisible spirit soul is utterly dependent upon the
alert, subtle mind aided by analytical intelligence. The ten senses of
information and action can, at the most, execute the mind’s instructions.
Emotion is the external display of one’s mental status. From inner purification
and change to external well being, the key is holistic healing and caring.
Spirituality has, since time immemorial, provided answers to the most complex
questions. So it has several tips to offer to tend to body, mind and soul. by
carefully studying one’s diet, sleep and work schedules and recreational
indulgences, the discerning counsellor can safely detect what even
sophisticated bio-medical gadgets and technicians may, at the most, merely
suspect. Quality eating combined with reason and restraint cures; whereas
quantity consumption just for gratification can prove to be eventually harmful
to vital bodily organs. There’s truth in the saying, “you are what you eat”.
पीया
हुआ जल तीन
प्रकार
का हो जाता
है ।
इसका
स्थूल भाग मूत्र,
मध्य
भाग रक्त
और
सूक्षम
भाग प्राण
हो जाता
है ।
खाया
हुआ घृत आदि
तीन प्रकार का हो
जाता
है ।
इसका
स्थूल भाग हड्डी हो
जाता है
।
मध्या
भाग मज्जा
बन जाता
है और
सूक्षम
भाग वाणी
हो जाता
है ।
इसी
प्रकार पिए
हुए जल
का सूक्ष्म
भाग ऊपर
आकर प्राण
बन जाता
है ।
जल को
इसी लिए
तो प्राण
और बादल
को प्रजन्य
कहते हैं
। और
भक्षण कए
हुए तेज
या घृत
का सूक्ष्म
भाग ऊपर
आ कर
वाणी का
रूप लेता
है ।
इसी के
बल पर
ऋषि- मुनि शाप
दे कर
किसी को
भस्म तक
कर डालते
हैं ।
इसलिए
मन अन्नमय है,
प्राण जलमय
है और
वाणी तेजोमय है
।
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