विश्वास
एक
डाकू था जो
साधू के भेष
में रहता था।
वह लूट का
धन गरीबों में
बाँटता था। एक
दिन कुछ व्यापारियों
का जुलूस उस
डाकू के ठिकाने
से गुज़र रहा
था। सभी व्यापारियों
को डाकू ने
घेर लिया। डाकू
की नज़रों से
बचाकर एक व्यापारी
रुपयों की थैली
लेकर नज़दीकी तंबू
में घुस गया। वहाँ उसने
एक साधू को
माला जपते देखा।
व्यापारी ने वह
थैली उस साधू
को संभालने के
लिए दे दी।
साधू ने कहा
की तुम निश्चिन्त
हो जाओ।
डाकूओं
के जाने के
बाद व्यापारी अपनी
थैली लेने वापस
तंबू में आया।
उसके आश्चर्य का
पार न था।
वह साधू तो
डाकूओं की टोली
का सरदार था।
लूट के रुपयों
को वह दूसरे
डाकूओं को बाँट
रहा था। व्यापारी
वहाँ से निराश
होकर वापस जाने
लगा मगर उस
साधू ने व्यापारी
को देख लिया।
उसने कहा; "रूको,
तुमने जो रूपयों
की थैली रखी
थी वह ज्यों
की त्यों ही
है।"
अपने
रुपयों को सलामत
देखकर व्यापारी खुश
हो गया। डाकू
का आभार मानकर
वह बाहर निकल
गया। उसके जाने
के बाद वहाँ
बैठे अन्य डाकूओं
ने सरदार से
पूछा कि हाथ
में आये धन
को इस प्रकार
क्यों जाने दिया।
सरदार ने कहा;
"व्यापारी मुझे भगवान
का भक्त जानकर
भरोसे के साथ
थैली दे गया
था। उसी कर्तव्यभाव
से मैंने उन्हें
थैली वापस दे
दी।"
किसी
के विश्वास को
तोड़ने से सच्चाई
और ईमानदारी हमेशा
के लिए शक
के घेरे में
आ जाती है।
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