Thursday, February 28, 2013


See God- Where? How? Why?-(2)

God is indifferent to your like or dislike, love or hate, worship or insult since He is the Creator of the world and since He is merciful on His creatures; He is neither pleased by your acts of devotion nor displeased by your acts of neglect and negation. The god has already gifted life to you; He neither gives you anymore nor takes from you once He has created you. In view of this why to love God? It would be superfluous to pray or worship God as token of your love to Him.

God is omnipresent – present in every iota of the material world and every cell of living beings including the yourself – religious philosophy states. Hence love God. The radiance of omnipresent God inherent in yourself will enlighten you with His Omni science and will empower your mental and physical potentials with His Omni potency. This will facilitate you for living with peace and comfort in synergism with His creations- the God being omnipresent, omniscient and omnipotent as per the religious philosophy; all virtues of the God are not for elevation and enchantment of Himself but for his creatures. Thus loving God, by prayer, worship, meditation etc you love yourself, augment your potentials enhancing the contribution towards peace and comfort of yourself and the society.

So love self, think high, act high, live high letting other to follow you. This will bring peace and comfort to yourself and to the society you live in. This is a mode of living as theist if one does not like to be atheist.

"A spiritually blind person may survive well in the world. However, being surrounded by the darkness of ignorance, he cannot lead his corporeal life fully, leave aside the spiritual life. He would remain distraught, dependent, stagger and always sing the tunes of life at a lower note..."

We have three dimensions to our being-physical, mental and spiritual. We mostly live within the first two dimensions, which mean that we are not living fully to the extent of our potential. This gives us a feeling of certain want or void and no amount of sensuous and worldly pleasures can fill this void. “The Lord is my shepherd and I shall not want "-says the Bible.

If god is hidden in everybody what actually is his/her/? Residence? Why he/she/? Has to stay hidden in everybody and not visible? Is our life like joystick games a mission to unearth hidden god? If anyone who has found and seen god hidden within self share the view with others? Or can they simultaneously see god hidden in everybody else, because if so they must worship every living creature as they can see god in all they must respect and worship every living temples isn't it true. Have you ever any claimant who had seen god doing this to everybody? Giving same respect as temple or church or Gurudwara or mosque to any individual? Think anybody who claims has seen god, are trying to supersize themselves among others.

Have a question..why is that people who disturb others peace, create chaos, violence, hatred tend to be living more freely but people who tend to be spreading love, peace, and happiness have always one or the other unhappiness in their personal life, family life bothering them, bringing them down. Making them feel love. y most of our prayers remain unanswered even after putting in everything we could. Why do the rich remain rich? Both in terms of money and happiness and the poor always poor??

We, human beings like to take in negativity of all kinds. Newspapers, news channel sells like hot cakes when CHAOS, VIOLENCE, HATRED, RAPE ETC are publicised. Nobody will watch TV or read newspapers if a reporter writes a good thing done by an human being. So if you look around you, you can see many beautiful things which have gone unnoticed till now. If you get disturbed by reading or listening to such stuffs, why do you read or listen to it?

(to be Contd....)

सबसे महत्वपूर्ण है विवाह संस्कार

संस्कार भारतीय संस्कृति के मूलाधार हैं चौसठ कलाएं और सोलह संस्कार जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माने गए हैं गर्भाधान से लेकर अंतेष्टि तक सभी सोलह संस्कारों में 'विवाह संस्कार' सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है, क्योंकि तदोपरांत गृहस्थ धर्म ही सोलह संस्कारों को पूर्णता प्रदान करता है विवाह को संस्कारों में विशेष स्थान दिया गया है शक्ति और शिव अर्थात स्त्री और पुरुष के अनन्य प्रेम से सृष्टि का क्रम आगे बढ़ता है इस यात्रा का माध्यम बनता है विवाह

वैदिक रीति के अनुसार आदर्श विवाह में परिजनों के सामने अग्नि को अपना साक्षी मानते हुए सात फेरे लिए जाते हैं प्रारम्भ में कन्या आगे और वर पीछे चलता है भले ही माता पिता कन्या दान कर दें, किन्तु विवाह की पूर्णता सप्तपदी के पश्चात तभी मानी जाती है, जब वर के साथ सात कदम चल कर कन्या अपनी स्वीकृति दे देती है शास्त्रों ने अंतिम अधिकार कन्या को ही दिया है पत्नी बनने से पूर्व कन्या वर से  यज्ञ  दान में उसकी सहमति, आजीवन भरण-पोषण, धन की सुरक्षा,  सम्पति खरीदने में सम्मति, समयानुकूल व्यवस्था  तथा सखी सहेलियों में अपमानित करने के सात वचन कन्या द्वारा वर से भराए जाते हैं इसी प्रकार कन्या भी पत्नी के रूप में अपने दायीत्वों को पूरा करने के लिए सात वचन भरती है

सप्तपदी में पहला पग भोजन व्यवस्था के लिए,
दूसरा शक्ति संचय, आहार तथा संयम के लिए,
तीसरा धन की प्रबंध व्यवस्था हेतु,
चौथा आत्मिक सुख के लिए,
पांचवां पशुधन संपदा हेतु,
छटा सभी ऋतुओं में उचित रहन-सहन के लिये तथा अंतिम
सातवें पग में कन्या अपने पति का अनुगमन करते हुए सदैव  साथ चलने का वचन लेती है

तथा सहर्ष जीवन पर्यंत पति के प्रत्येक कार्य में सहयोग देने की प्रतिज्ञा करती है आखिरकार विवाह में "सप्तपदी" अग्नि के सात फेरे तथा वर वधु द्वारा सात वचन ही क्यों निर्धारित किये गए हैं ? इनकी संख्या सात से कम या अधिक भी हो सकती थी ध्यान देने योग्य बात है कि भारतीय संस्कृत में सात की संख्या मानव जीवन के लिए बहुत विशिष्ट मानी गयी हैं वर वधु सातों सातों वचनों को  कभी भूले और वे उनकी दिनचर्या में सामिल हो जाएँ ऐसा माना जाता है, क्योंकि वर्ष महीनों के काल खण्डों को सात दिनों के सप्ताह में विभाजित किया गया है।

सूर्य के रथ में सात घोड़े होते हैं जो सूर्य के प्रकाश से मिलने वाले सात रंगों में प्रकट होते हैं आकाश में इन्द्रधनुष के समय वे सातों रंग स्पष्ट दिखाई देते हैं दांपत्य जीवन में इन्द्रधनुषी रंगों की सतरंगी छटा बिखरती रहे इस कामना से सप्तपदी की प्रक्रिया पूरी की जाती है "मैत्री सप्त्पदीन मुच्यते" अर्थात एक साथ सिर्फ सात कदम चलने मात्र से ही दो अनजान व्यक्तियों में भी मैत्री भाव उत्तपन्न हो जाता है अतः जीवन भर का संग निभाने के लिए प्रारम्भिक सात पदों की गरिमा एवं प्रधानता को स्वीकार किया गया है सातवें  पग में वर, कन्या से कहता है कि, "हम दोनों सात पद चलने के पश्चात परस्पर सखा बन गए हैं "

जीवन में बरसें आनंद के सुर - वर वधु विवाह में परस्पर मिलकर यह कामना करते हैं कि उनके द्वारा मिलकर उठाये गए सात पगों में प्रारम्भ जीवन में आनंददायी संगीत के सभी सुर समाहित हो जाएँ तांकि  वो आजीवन प्रसन्न रह सकें मन, वचन और कर्म के प्रत्येक  तल पर  पति पत्नी के रूप में हमारा हर कदम एक साथ उठे इसलिए आज अग्निदेव के समक्ष हम साथ सात कदम रखते हैं हमारे जीवन में कदम कदम पर सप्त ऋषि हम दोनों को अपना आशीर्वाद प्रदान करें तथा सदैव हमारी रक्षा करें

सातों लोको में हमारी कीर्ती हो हम अपने गृहस्थ धर्म का जीवन पर्यंत पालन करते हुए एक दुसरे के प्रती सदैव एकनिष्ठ रहें और पति पत्नी के रूप में जीवन पर्यंत हमारा यह बंधन सात समुन्दर पार तक अटूट बना रहे तथा हमारा प्यार सात समुन्दरों कि भांति विशाल और गहरा हो हमारे प्राचीन मनीषियों ने बहुत सोच समझ कर विवाह में इन परम्पराओं की नीव रखी थी

Wednesday, February 27, 2013


Sri Darbar Sahib

(ਡਿਠੇ ਸਭੇ ਥਾਵ ਨਹੀ ਤੁਧ ਜਿਹਿਯਾ) ਹੁਕਮਨਾਮਾ ਸ਼੍ਰੀ ਦਰਬਾਰ ਸਹਿਬ ਸ਼੍ਰੀ ਅੰਮ੍ਰਿਤਸਰ ਸਹਿਬ ਤੋਂ ਜੀ
ਅੱਜ ਦਾ ਮੁੱਖਵਾਕ 22.2.2013, ਸ਼ੁਕਰਵਾਰ , ੧੧ ਫੱਗਣ (ਸੰਮਤ ੫੪੪ ਨਾਨਕਸ਼ਾਹੀ)

ਸਲੋਕ

ਸੰਤ ਉਧਰਣ ਦਇਆਲੰ ਆਸਰੰ ਗੋਪਾਲ ਕੀਰਤਨਹ ਨਿਰਮਲੰ ਸੰਤ ਸੰਗੇਣ ਓਟ ਨਾਨਕ ਪਰਮੇਸੁਰਹ

ਚੰਦਨ ਚੰਦੁ ਸਰਦ ਰੁਤਿ ਮੂਲਿ ਮਿਟਈ ਘਾਂਮ ਸੀਤਲੁ ਥੀਵੈ ਨਾਨਕਾ ਜਪੰਦੜੋ ਹਰਿ ਨਾਮੁ
 
ਪਉੜੀ ਚਰਨ ਕਮਲ ਕੀ ਓਟ ਉਧਰੇ ਸਗਲ ਜਨ ਸੁਣਿ ਪਰਤਾਪੁ ਗੋਵਿੰਦ ਨਿਰਭਉ ਭਏ ਮਨ ਤੋਟਿ ਆਵੈ ਮੂਲਿ ਸੰਚਿਆ
ਨਾਮੁ ਧਨ ਸੰਤ ਜਨਾ ਸਿਉ ਸੰਗੁ ਪਾਈਐ ਵਡੈ ਪੁਨ ਆਠ ਪਹਰ ਹਰਿ ਧਿਆਇ ਹਰਿ ਜਸੁ ਨਿਤ ਸੁਨ ੧੭
(ਅੰਗ ੭੦੯)

ਪੰਜਾਬੀ ਵਿਚ ਵਿਆਖਿਆ :-

ਜੋ ਸੰਤ ਜਨ ਗੋਪਾਲ-ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਕੀਰਤਨ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਜੀਵਨ ਦਾ ਸਹਾਰਾ ਬਣਾ ਲੈਂਦੇ ਹਨ, ਦਿਆਲ ਪ੍ਰਭੂ ਉਹਨਾਂ ਸੰਤਾਂ ਨੂੰ (ਮਾਇਆ ਦੀ ਤਪਸ਼ ਤੋਂ) ਬਚਾ ਲੈਂਦਾ ਹੈ, ਉਹਨਾਂ ਸੰਤਾਂ ਦੀ ਸੰਗਤਿ ਕੀਤਿਆਂ ਪਵਿਤ੍ਰ ਹੋ ਜਾਈਦਾ ਹੈ ਹੇ ਨਾਨਕ! (ਤੂੰ ਭੀ ਅਜੇਹੇ ਗੁਰਮੁਖਾਂ ਦੀ ਸੰਗਤਿ ਵਿਚ ਰਹਿ ਕੇ) ਪਰਮੇਸਰ ਦਾ ਪੱਲਾ ਫੜ

 ਭਾਵੇਂ ਚੰਦਨ (ਦਾ ਲੇਪ ਕੀਤਾ) ਹੋਵੇ ਚਾਹੇ ਚੰਦ੍ਰਮਾ (ਦੀ ਚਾਨਣੀ) ਹੋਵੇ, ਤੇ ਭਾਵੇਂ ਠੰਢੀ ਰੁੱਤ ਹੋਵੇ-ਇਹਨਾਂ ਦੀ ਰਾਹੀਂ ਮਨ ਦੀ ਤਪਸ਼ ਉੱਕਾ ਹੀ ਮਿਟ ਨਹੀਂ ਸਕਦੀ ਹੇ ਨਾਨਕ! ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਨਾਮ ਸਿਮਰਿਆਂ ਹੀ ਮਨੁੱਖ (ਦਾ ਮਨ) ਸ਼ਾਂਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ

 ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਸੋਹਣੇ ਚਰਨਾਂ ਦਾ ਆਸਰਾ ਲੈ ਕੇ ਸਾਰੇ ਜੀਵ (ਦੁਨੀਆ ਦੀ ਤਪਸ਼ ਤੋਂ) ਬਚ ਜਾਂਦੇ ਹਨ ਗੋਬਿੰਦ ਦੀ ਵਡਿਆਈ ਸੁਣ ਕੇ (ਬੰਦਗੀ ਵਾਲਿਆਂ ਦੇ) ਮਨ ਨਿਡਰ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਨ ਉਹ ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਨਾਮ-ਧਨ ਇਕੱਠਾ ਕਰਦੇ ਹਨ ਤੇ ਉਸ ਧਨ ਵਿਚ ਕਦੇ ਘਾਟਾ ਨਹੀਂ ਪੈਂਦਾ ਅਜੇਹੇ ਗੁਰਮੁਖਾਂ ਦੀ ਸੰਗਤਿ ਬੜੇ ਭਾਗਾਂ ਨਾਲ ਮਿਲਦੀ ਹੈ, ਇਹ ਸੰਤ ਜਨ ਅੱਠੇ ਪਹਿਰ ਪ੍ਰਭੂ ਨੂੰ ਸਿਮਰਦੇ ਹਨ ਤੇ ਸਦਾ ਪ੍ਰਭੂ ਦਾ ਜਸ ਸੁਣਦੇ ਹਨ੧੭

ENGLISH TRANSLATION :-

SHALOK:

The Merciful Lord is the Saviour of the Saints; their only support is to sing the Kirtan of the Lords Praises. One becomes immaculate and pure, by associating with the Saints, O Nanak, and taking the Protection of the Transcendent Lord.|| 1 ||

The burning of the heart is not dispelled at all, by sandalwood paste, the moon, or the cold season. It only becomes cool, O Nanak, by chanting the Name of the Lord. || 2 ||

PAUREE: Through the Protection and Support of the Lords lotus feet, all beings are saved. Hearing of the Glory of the Lord of the Universe, the mind becomes fearless. Nothing at all is lacking, when one gathers the wealth of the Naam. The Society of the Saints is obtained, by very good deeds. Twenty-four hours a day, meditate on the Lord, and listen continually to the Lords Praises. || 17 ||

WAHEGURU JI KA KHALSA
WAHEGURU JI KI FATEH JI..