सुख और दुःख
मनुष्य और उसके
जीवन का लक्ष्य
क्या है ?
प्रतेक ब्यक्ति अपने जीवन
मैं शक्ती एवं
आनंद चाहता है
। दिन भर
की भाग दौड़
के बाद हर
इंसान चैन की
नीद सोना चाहता
है, क्यों की
नीद से हमारे
शरीर और मस्तिक्ष
को आराम मिलता
है । पर
क्या कभी अपने
आत्मा के आनंद,
उसके आराम के
बारे में दिन
में एक बार
भी विचार करता
है ?
क्योंकि
लोग भगवान् की
भक्ति करते हैं,
अर्चना अराधना करते हैं,
जप ध्यान करते
हैं और आस्था
के सिखर पर
चढ़ना चाहते हैं
। वे सोचते
हैं की हम
लोभी ना हों,
करोधी ना हों,
भयभीत ना हों,
काम नाओं के
जाल में न
फंसें, फ़िर भी
बेचारे फंस जाते
हैं, तो क्या
करें ? जब तक
भीतर कामनाएं छुपी
हुयी हैं, तब
तक आदमी ऊपर से
न चाहे तो
भी छुपी हुई
इच्छा उभर ही
आती है ।
कई बार आप
न ही चाहते,
फिर भी काम,
क्रोध, लोभ आदि आपके
मन को ग्रस्त
कर लेते हैं
। आप नही
चाहते, फिर भी
अशांति आ जाती
है ।
इन
छुपी हुई वृतियों
को साधने या
मिटाने के लिए
ही ध्यान की
पद्दति खोजी गयी
है । ध्यान
करते करते जब
व्यक्ति को उसका
रस मिलने लगता
है, तब छुपे
हुए संस्कार, छुपी
हुई कामना ।
छुपी हुई वासना
सांत हौने लगती
है । आत्मा
का आनंद त्यों
–त्यों बढ़ता जाता है
। जैसे आनंद
का रस बरस
रहा हो, और
हम उसमे भीग
रहे हों ।
आनंद की इच्छा
इंसान की फितरत
में है ।
अनंत
समय से मनुष्य
संसार की मजदूरी
में समय गंवाता
आ रहा है
। सुख को
बाहर खोजता आ
रहा है ।
की नौकरी मिल
जाए तो सुखी
हो जाऊं ..........शादी
हो जाए तो
सुखी हो जाऊँ
......... दुश्मन का सर्वनाश
हो जाए तो
सुखी हो जाऊं
...........किंतु ये सब
हो जाए तब
भी हम पूरण
सुखी हो नही
पाते। कुछ न
कुछ दुःख बनना
ही रहता है।
और जो सुख
मिलते हैं वो
भी स्थाई नही
होते, क्योंकी खोज
होती है बाहर।
दुःख
जीवन का तथ्य
है, लेकिन अकेला
दुःख ही जीवन
का तथ्य नही
है। सुख भी
जीवन का तथ्य
है । और
जितना बड़ा तथ्य
दुःख है, उससे
छोटा तथ्य सुख
नही है। और
जब हम सुख
को ही तथ्य
मान कर बैठ
जाते हैं, तो
अतथ्य ही जाता
है। क्योंकि सुख
कहाँ छोड़ दिया
। अगर जीवन
में दुःख ही
होता है, तो
बुद्ध को किसी
को समझाने की
जरुरत न पड़ती।
और बुद्ध इतना
समझते हैं लोगों
को फ़िर भी
कोई भाग तो
जाता नही। हम
भी दुःख में
रहते हैं, लेकिन
फ़िर भी भाग
नही जाते। दुःख
से भिन्न भी
कुछ होना चाहिए,
जो अटका लेता
है, जो रोक
लेता है। किसी
को प्रेम करने
में अगर सुख
न हो, तो
इतने दुःख को
झेलने को कौन
राजी होगा। और
कण भर सुख
के लिए पहाड़
भर अगर आदमी
दुःख झेल लेता
है तो, मानना
होगा की कण
भर सुख की
तीब्रता पहाड़ भर दुःख
से ज्यादा होगी।
सुख भी सत्य
है।
समस्त
त्यागवादी सिर्फ़ दुःख पर
जोर देते हैं,
इसलिए वो असत्य
हो जाता है
। समस्त भोगवादी
सुख पर जोर
देते हैं, इसलिए
वो असत्य हो
जाता है ।
क्योंकि वो कहते
हैं की दुःख
है ही नही
। सुख ही
सत्य है ।
तब ध्यान रहे
आधे सत्य असत्य
हो जाते हैं।
सत्य होगा तो
पूरा ही होगा
। आधा हो
ही नही सकता
। कोई कहे
जन्म ही है
तो असत्य हो
जाता है ।
क्योंकि जन्म के
साथ मृत्यु है
। कोई कहे
मृत्यु ही है
। तो असत्य
हो जाता है
। क्योंकि मृत्यु
के साथ जन्म
है ।
जीवन
दुःख है ।
अगर ऐसा प्रचारित
हो, तो यह
अतथ्य हो जाता
है । हाँ,
लेकिन जीवन सुख
दुःख है ऐसा
तथ्य है। और
अगर इसे और
गहरे देखें तो
पता लगाना मुश्किल
हो जाएगा की
दुःख कब सुख
हो जाता है
और सुख कब
दुःख हो जाता
है । यह
Transferable है, Convertable
भी है ।
एक दूसरे में
बदलते भी चले
जाते हैं ।
यह रोज होता
है । जो
चीज़ मुझे आज
सुख मालूम पड़ती
है, वो कल
दुःख मालूम पड़ने
लगती है ।
अभी में आपको
गले लगा लूँ,
सुख मालूम पड़ता
है । फ़िर
दो मिनट न
छोडूं तो दुःख
शुरू हो जाता
है ।
हम
सभी अपने सुख
को दुःख बना
लेते हैं ।
सुख को हम
छोड़ना नही चाहते,
तो जोर से
पकड़ते हैं ।
जोर से पकड़ते
हैं तो दुःख
हो जाता है
। फ़िर जिसको
इतनी जोर से
पकड़ा, तो फ़िर
उसको छोड़ने में
मुश्किल हो जाती
है । दुःख
को हम एकदम
छोड़ना चाहते हैं, इसलिए
दुःख गहरा हो
जाता है ।
पकड़े रहें दुःख
को भी तो,
थोडी देर में
पायेंगे की सुख
हो गया ।
दुःख का मतलब
है की शायद,
हम अपरिचित हैं,
थोडी देर में
परिचित हो जायेंगे
। और परिचय
सब बदल देगा
।
ऐसी
कोई जगह नही
है, जहाँ सुख
ही सुख हो
। ऐसी कोई
जगह नही है,
जहाँ दुःख ही
दुःख हो ।
इसलिए स्वर्ग और
नरग सिर्फ़ कल्पनाएँ
हैं । वह
हमारी इसी कल्पना
की दौड़ है
।
एक
जगह हमने दुःख
ही दुःख इकठा
कर दिया है
। नहीं ! .......... जिन्दगी
जहाँ भी है,
वहां सुख भी
है, और दुःख
भी है ।
नरक में भी
विश्राम के होंगे
और स्वर्ग के
सुख होंगे और
स्वर्ग में भी
थक जाने के
दुःख होंगे ।
मानसिक
सम्पन्दा को हांसिल
करने में हमें
आनंद मिलेगा जब
की मानसिक विप्पन्न्ता
हमें दुःख ही
दे सकती है।
हमारा मन किस
तरफ़ जा रहा
है, इसका हमें
जरूर ख्याल रखना
चाहिए । मन
की संपदा से
ही जीवन का
स्तर निर्धारित होता
है । लोग
इस बात को
साफ़ नज़रअंदाज कर
जाते हैं ।
बाहरी
दुनिया की तरह
ही हमारी एक
आंतरिक दुनिया भी है
जिसकी हम बार
बार सैर करते
हैं । इस
आंतरिक दुनिया को पवित्र
रखने में मंत्र
हमारी मदद करते
हैं । हमारे
मन के पास
कल्पन्ना की शक्ति
है । यह
अच्छी भी हो
सकती है और
बुरी भी ।
हम अपनी कल्पना
के सहारे सत्य
को देखते हैं
और वही हमें
अन्तिम सत्य लगता
है । अपनी
कल्पना से पाया
सत्य हम बाहरी
सत्य पर आरोपित
करते हैं ।
यानी आंतरिक सत्य
को बाहरी सत्य
पर थोप देते
हैं । लेकिन
बाहरी सत्य तो
हमारा देखा हुआ
नहीं है, हम
सिर्फ़ अपनी कल्पना
के सहारे देखा
सत्य ही जानते
हैं।
पति
को अपनी पत्नी
से कुछ अपेक्षाएं
होती हैं ।
इन्हीं अपेक्षाओं के सहारे
वह कल्पना करता
है की उसकी
पत्नी कैसी हो,
वास्तविता लेकिन कुछ और
ही होती है
। तब पति
का पत्नी से
अपेक्षा भंग हो
जाता है ।
इसलिए नहीं की
वो कैसी है,
बल्की इसलिए की
उसे कैसी होना
चाहिए था ।
बाहरी वास्तविकता उसकी
कल्प्न्ना के साथ
मेल नहीं खाती
। कई पुरूष
और महिलायें इसी
दुःख से आहात
होते हैं। यह
सब उस दुनिया
में घटता है,
जो हममें बस्सी
है, यानी हमारे
मन में बस्सी
है । इसी
असमंजस में हम
जीते हैं और
दुःख पाते हैं
। पवित्र मन
की ताकत से
हम यह जान
सकते हैं की
हमारा मन क्या
चाहता है ।
जीवन
में जो अत्यन्त
उपयोगी है, जो
अत्यंत जरुरी है, वह
सहज में हो
जाता है ।
मानव चिंता की
गठरी उठा -उठाकर
इतना बेहाल हो
जाता है की,
साथ में हरी
है, साथ में
परमात्मा हृदय में
निवास कर रहा
है, उसका पता
ही नहीं है
। नश्वर जगत
को मानव खूब
संभालता है, किंतु
स्वस्त खजाना जो उसके
पास है, उसकी
याद तक नही
करता ।
यह
एक कहानी या
सच्ची घटना हा
। एक व्यक्ति
भीक मांग कर
गुजारा करता था
। वर्षों से
वह सड़क पर
एक ही निश्चित
जगह पर बैठ
कर भीख मांग
रहा था ।
उसकी दशा नही
बदली । एक
ही तरह, एक
ही जगह, पता
नहीं वो कितने
वर्षों से भीख
मांग रहा था
। एक दिन
उसकी मृत्यु हो
गयी । कुछ
भले लोगों ने
उसके शव को
उसी के बैठने
के स्थान पर
दफनाने का फैसला
किया । इसके
लिए थोडी सी
जमीन खोदी गयी
तो वहां बेशकीमती
हीरे जवाहरात से
भरा खजाना दबा
पड़ा मिला ।
हमारा जीवन भी
कुछ इसी भिखारी
की तरह है
। हमारे भीतर
पता नही कितना
बड़ा खजाना छुपा
पडा है और
हम बाहर हाथ
फैलाए, अनेक लालसाएं
लिए घूम रहे
हैं ।
इसे
दुर्भाग्य ही कहा
जाएगा की टेलीफोन,
टेलीविजन, रेडियो, मोबाइल और
तरह तरह के
सुविधावों के सामान
बना कर, व
अन्तरिक्ष में उपग्रह
छोड़ कर, भिन्न
भिन्न ग्रहों में
कदम रखने वाला
मानव अपनी ही
भीतर छिपी हुई
विलक्षण ताकत और
क्षमताओं से बेखबर
है। इंसान जन्म
लेता है, अपनी
ढंग से जिन्दगी
जीता है, और
एक दिन हमेशा
के सो जाता
है ।
जीवनभर
उसे अपनी भीतर
की सोयी हुई
शक्ती के श्रोत
का पता ही
नही चलता ।
सच तो यह
है की सभी
तरह की जानी-पहचानी सिद्धियाँ और
शक्तियां प्रतेक मनुष्य के
भीतर सुप्त अवस्था
में विद्यमान हैं
। जरूरत है
तो सिर्फ़ उन्हें
जगाने की ।
जब तक ये
निंद्रा में हैं,
हम अपने मस्तिष्क
और इन्द्रियों की
कर्याक्ष्मता की सीमाओं
से बंधे हुए
हैं। सिर्फ़ प्राचीन
भारतीय सभ्यताओं में ही
नहीं, बल्कि विश्व
के सभी हिस्सों
में पाई गयी
एतिहासिक सभ्यताओं के अवशेषों
से यह प्रमाणित
हो चुका हैकी
हजारों वर्षों से पहले
से, मनुष्य अपनी
भीतर की इन
रहस्यमयी शक्तियों की पूजा-अर्चना करता आया
है और इन्हें
जागृत कर व्यवहार
में लाने का
प्रयास भी करता
रहा है ।
यह अलग बात
है की इस
उद्येश के लिए
प्रयोग में लाई
जाने वाली विधियां
अलग अलग थीं
। मगर उन
सब का मकसद
एक था - अपनी
भीतर सोई चमत्कारी
ताकत को जगाना
और परमानंद के
लक्ष्य तक पहुँचने
के लिए उसका
saharaa लेना ।
विभिन्न धर्मों, सम्पर्दयों,
मतों और सभ्यताओं
के अर्न्तगत ध्यान
अथवा पूजा -उपासना
के मध्यम से
मन को एक
स्थान पर केंद्रित
करने की बताई
गयी विधिओं का
वास्तविक सम्बन्ध इसी
शक्ति से है
।
यह अलग
बात है की
ध्यान -उपासना करने
वाले भी अक्सर
इसका असली उद्देश्य
नही जानते हैं
। मोहन्जोदडो और
हद्दप्पा जैसी अति
प्राचीन सभ्यताओं में
इस शक्ति की
जानकारी मनुष्यों को
होने के सबूत
हैं ।
चीन के साधक
इसे शताब्दियों से
‘ची ’ के नाम
से जानते हैं,
जब की जापान
में अन्नंत उर्जा
को ‘की ’ कहा
जाता रहा है
। इसाई धर्म
के अनुयाई मनुष्य
में पवित्र आत्मा
का अस्तित्वा स्वीकारते
हुए उस की
पूजा करते हैं
। हकीकत
तो यह है
की मनुष्य के
ख़ुद के भीतर
मौजूद शक्ति पर
न तो किसी
सम्पर्दाया विशेष
का अधिकार है
और न ही
यह जाती, धर्म,
देश और काल
की सीमाओं से
बंधी जा सकती
है ।
धर्म्निर्पेल्श हमें
सिखाते हैं की
अंतरमुखी बनो, बहिर्मुखी
नही । मगर
वे आम लोगों
को यह समझा
पाने में विफल
रहते हैं की
अंतर्मुखी बनाना क्या
है, और इसे
कैसे बना जाता
है । अपने
भीतर झांक कर
वहां छिपी विलक्षण
शक्ति के भण्डार
को जानना-समझना
और बाहर के
साधनों की बजाय
अपने में मौजूद
संपदा का इस्तेमाल
प्रारम्भ करना ही
ब्यवहारिक रूप से
अंतर्मुखी होना है
। यही कारण
है की बहिर्मुखी
व्यक्ति की सारी
क्षमताएं साधनों -उपकारो
की क्षमता तक
ही सिमित रह
सकती है, जब
की अंतर्मुखी व्यक्ति
की पहुँच इन
सीमाओं से भी
परे है ।
बहिर्मुखी -अंतर्मुखी
के बीच की
सीमा रेखा के
बीच की तरफ़
संसारिकता है तो
दूसरी और से
सिद्धियाँ प्रारम्भ हो
जाती है ।
मनुष्य अपनी इन्द्रयों
की क्षमता से
परे जा कर
भी बहुत कुछ
कर सकता है
। इसी को
‘अतीन्द्रिय’ कहा
जाता है और
अतीन्द्र्य शक्तियों
से युक्त मनुष्यों
को सिद्ध पुरूष
।
इसे विडम्बना
ही कहा जाएगा
की बुनियादी रूप
से एक ही
लक्ष्य को प्राप्त
करने के लिए
स्थापित विभिन्न सम्पर्दाया
आज इतने ज्यादा
विकृत हो गए
हैं की वे
सवयं खून -खराबे,
दंगे, अशांती और
विनाश का कारण
बनने लगे हैं
। धर्म के
नाम पर एक
- दूसरे को मारने
– काटने से भी
नही चूकते हैं
। अंतर्मुखी होना
तो दूर की
बात है, लोग
धर्म और जाती
का मतलब व
उद्देश्य तक भूल
चुके है, अंतर्मुख,
धर्म जाती , सांसारिक
इत्यादि -इत्यादि से
तो पहले हमें
जानना है हमारे
इर्द -गिर्द, बाहर
का दृश्य ।
मनुष्य दोनों के
साथ -साथ है
, शरीर भी और
आत्मा के भी
। पूर्व इसी
अधूरी और अधार्मिक
धारणा के कारण
ही आज भौतिक
रूप से दीं
-हीन हो गया
है , और पश्चिम
अपनी एकांगी दृष्टी
के कारण आज
हिंसा और ऊब
से भर गया
है । धर्म
कहता है की
शरीर तो परमात्मा
का निवास है
। बिना घर
जाए कोई घर
के मालिक से
नही मिल सकता
।
आज का सभ्य
मनुष्य नाखूनों से
नही लड़ता, लेकिन
क्या अनुबम और
उद्जन बम उसी
के भयंकर नाखून
नही हैं? पिछले
तीन हज़ार वर्षों
में पञ्च हज़ार
युद्ध आदमी ने
किए हैं ।
दो महायुद्धों में
लगभग दस करोड़
लोगों की ह्त्या
हुई है ।
आज भी इतनी
सामग्री ( TNT,
RDX, PE, Atom bomb, Hydrozoan’s Bomb etc.etc.) है
की हमारे जैसी
एक हज़ार प्रिथियों
को नष्ट किया
जा सकता है
। और यह
सब उसने शान्ति
और सुरक्षा के
लिए किया है
। क्या
आदमी अन्दर से
कुछ बदला है
?
मनुष्य बिल्कुल नही बदला
। लगता है
मनुष्य सोचने में कही
बुनियादी भूल कर
रहा है ।
वह बुनियादी भूल
यह है की
वह सोचता रहा
है समस्याओं के
मूल कारण बाहर
है । धर्म
कहता है की
मनुष्य की समस्याओं
की जड़ें उसके
अन्दर ही है
।
इस्वर पूर्ण है ।
नित्य है ।
सर्वत्र है ।
सर्वव्यापी है ।
सभी दोषों से
मुक्त है ।
इश्वर
सचिदानंद स्वरुप है ।
यह सारा संसार
इश्वर , जीव और
पृकृति के मेल
का खेल है
। पृकृति केवल
(सत्स्वरूप) है। जीव
सत + चित + स्वरुप
= सतचित स्वरुप है। इस्वर
सत + चित + आनंद
+ सचिद आनंद स्वरुप
है। प्रकृति जड़
है। उसे आनंद
की आवश्यकता नही
। जीव चेतन
है । इसे
आनंद की विशेष
आवश्यकता है।
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