Sunday, November 11, 2012


धनतेरस व दीपावली

दीपावली मूलतः कृषक समाज का पर्व था, जो फसल कटने पर बैलों की पूजा कर उनके प्रति अपना आभार व्यक्त करने के लिए मनाया जाता था, इसे बल्दराज की पूजा कहा भी कहा जाता था। धनतेरस दरअसल धन्वंतरी के बहाने आरोग्य और दीर्घजीवन की आकांक्षा का दिन है, लेकिन हिंदू धर्म पर हावी बाजारवादी शक्तियों ने खेतिहर समाज के इस लोकपर्व का अपहरण कर इसकी भ्रूण हत्या कर दी, आज यह पर्व धन की लालसा, भ्रष्टाचार का बेशर्म प्रदर्शन और लालचियों का पर्व बन गया है।

दीपावलि को हम खेतिहर समाज और ज्ञान के पर्व में बदल सकते हैं, बशर्ते कि हम सब धनतेरस को बरतन खरीदने के अंधविश्वास से मुक्ति पायें। करोड़ों लोग हर साल लक्ष्मी पूजन करते हैं---- लेकिन लक्ष्मी की कृपा उन्ही पर क्यों बरसती है जो भ्रष्टाचार करते हैं? लक्ष्मी को प्रसन्न कर इजी मनी की कामना करने वाले समाज को ज्ञान की कामना करने वाले समाज में बदलना कठिन है, पर यदि हम यदि हम जरुरत के हिसाब से जिंदगी जियें,----- ख्व़ाहिसों तो राजाओं की भी पूरी नहीं होती ---यदि ये समझ जाएँ, --- तो भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित करने वाला बाजार भी बदलेगा और दीपावलि पर लगा आर्थिक कुंठाओं का ग्रहण भी छंटेगा।

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