Saturday, October 27, 2012

मोको कहाँ तू ढूडे ना मैं मक्का ना मैं काबा ना कैलाश में ।

सुना  है 'ईश्वर' है ! किसी किसी ने ईश्वर को देखा भी  है । जिसने उन्हें देखा है उनसे मिलने का सौभाग्य आज तक नहीं मिला । सुनते हैं ईश्वर को तुलसीदास ने देखा है, सबरी ने दखा, मीरा ने देखा, कबीर ने देखा, स्वामी रामतीर्थ ने देखा, नानक ने देखा, रहीम ने देखा, लेकिन कुल  मिलकर गिनती के कुछ ही लोगों ने देखा ।

इन सबसे मिलना हो नहीं पाया, न ही उनसे मिलना हुआ जो इन महानुभाओं से मिलें हों । फिर भी बात बात में हर कोई उसी ईश्वर की दुहाई देता है । डाक्टर की कुछ समझ में न आये तो वह ईश्वर पर छोड़ देने की सलाह देता है । मुश्किल में पड़ा आदमी ईश्वर को पुकारता है, भविष्य अन्धकार में दिखे तो भी व्यक्ति  ईश्वर  को बुलाता है । कोई उससे डरता है, कोई उससे रूठता है, कोई उसके नाम की ताली बजाता है , कोई उसका गुणगान करता है, तो कोई रो रो के उससे फ़रियाद करता है । यानी वह अव्वल दर्जे का डाक्टर है, जज है, हितैषी है, दोस्त है, मुनीम है, मुह मांगी इच्छा पूरी करने की क्षमता रखता है । वह गजब का हरफन मौला है !

पर कमाल है, इतना सब होते  हुए भी किसी को ईश्वर नज़र नहीं आता । जो नज़र नहीं आता उस पर इतना विश्वास, इतनी श्रद्धा क्यों ? क्योंकि किसी को स्वर्ग चाहिए, किसी को मुक्ति, किसी को इस जीवन से जूझने की युक्ति चाहिए, किसी को मुक्ति या परम आनंद । श्री  कृष्ण  कह्ते हैं, अपनी योग माया में छिपा हुआ मैं सबके लिए प्रत्यक्ष नहीं होता,

इसलिए यह अज्ञानी मुझे जन्मरहित अविनाशी परमेश्वर को नहीं जानते। लो जीव अब बिलकुल साफ़ हो गया की 'ईश्वर' सबके सामने आना ही नहीं चाहता । जान बूझकर अपने और हमारे बीच उसने, माया का पर्दा  दाल रखा है


ईश्वर कोई हमारे और आप के जैसे नहीं कि जिसे मानव का देख लेना सम्भव हो, वह तो सम्पूर्ण संसार का रचयिता और पालनकर्ता है, उसके सम्बन्ध में कल्पना भी नहीं की जा सकती कि वह देखाई दे बल्कि जो देखाई दे वह तो सीमित हो गया और ईश्वर की महिमा असीमित है। मूसा नामक एक संदेष्टा (ईश्वरकी उन परदया हो) ने जब ईश्वर से प्रार्थना किया कि “हे  ईश्वर हमें अपना रूप देखा दीजिएतो उत्तर आया कि तुम हमें देख नहीं सकते परन्तु तुम इस पहाड़ पर देखो यदि वह अपने स्थान पर स्थित रहा तो तेरे लिए हमे देखना सम्भव है। जब ईश्वर ने अपना प्रकाश प्रकट किया तो पड़ार टूकड़े टूकड़े हो गया और मूसा बेहोश हो कर गिर पड़े। मानव अपनी सीमित बुद्धि से जब सोचता है तो समझने लगता है कि ईश्वर कोई मानव के समान है जो देखाई देना चाहिए। यह तो एक रहा! फिर संसार में विभिन्न चीज़ें हैं जो देखाई नहीं देतीं पर इंसान को उनके वजूद पर पूरा विश्वास होता है।
 
एक व्यक्ति जब तक बात करता होता है हमें उसके अन्दर आत्मा के वजूद का पूरा विश्वास होता है लेकिन जब ही वह धरती पर गिर जाता है, आवाज़ बन्द हो जाती है और शरीर ढीला पड़ जाता है तो हमें उसके अन्दर से आत्मा के निकल जाने का पूरा विश्वास हो जाता है हालाँ कि हमने उसके अन्दर से आत्मा को निकलते हुए देखा नहीं।
 
जब हम घर में बिजली की स्विच आन करते हैं तो पूरा घर प्रकाशमान हो जाता है और हमें घर में प्रकाश के वजूद का पूरा विश्वास हो जाता है फिर जब उसी स्विच को आफ करते हैं तो प्रकाश चला जाता है हालाँ कि हमने उसे आते और जाते हुए अपनी आँखों से  नहीं  देखा।
उसी प्रकार जब हवा बहती है तो हम उसे देखते नहीं पर उसका अनुभव करके उसके बहने पर पूरा विश्वास प्राप्त कर लेते हैं। तो जिस प्रकार आत्मा, बिजली और हवा के वजूद पर उसे देखे बिना हमारा पूरा विश्वास होता है उसी प्रकार ईश्वर के वजूद की निशानियाँ पृथ्वी और आकाश स्वयं मानव के अन्दर स्पष्ट रूप में विधमान है और संसार का कण कण ईश्वर का परिचय कराता है

ईश्वर को धुन्धने के लिए सात चीजों को छोड़ना जरूरी है- शब्द, स्पर्श, रस, गंध, रूप, सुख और दुःख । शब्दे सुनना है तो उसी के नाम का सुनना,स्पर्श करना हो तो उसी के चरणों का करना, रस लेना हो तो उसी के प्रशाद का या चरणामृत का ही लेना, रूप देखने की इच्छा हो तो उसी की छवि देखना, गंध लेनी हो तो तुलसी माँ की लेना, सुख चाहिए हो तो उसकी याद का, उसके सत्संग का सुख लेना और दुःख हो तो केवल इस बात का की मिला क्यों नही अब तक । तरीका तो पता चला, मगर स्थान ?



इसी विषय में कबीर दास जी कहते हैं : बाहर के आसमान से ईश्वर को किसी ने नही पाया । जिसने भी पाया मानव तन के भीतर ही पाया । अतः आवश्यकता है अंतर्मुखी होकर खोजने की, ईश्वर वहीं मिलेगा भीतर के आकाश में । यह मानव तन ही मन्दिर है, मस्जिद है, गुरद्वारा है और गिरजाघर है ।

गुरुवाणी में कहा गया है - ‘बाहर मूल न खोजिये घर माँ ही विधाता ।’ बाइबल कहती है - इंसान परमात्मा को बाहर तलाशता है । उसे बाहर स्वयं से दूर खोजता है, जब की वो हमारे भीतर, हमारे निकट निवास करता है ।

 

कबीर कहते हैं की इंसान की दशा कस्तुरी मृग की भांती है, जिसकी नाभी में कस्तुरी छिपी होती है । वह उसकी खुशबू से सरोबार हो बाहर जंगल में उसे ताउम्र तलाशता रहता है, परन्तु प्राप्त नही कर पाटा और उसके जीवन का अंत हो जाता है ।


इंसान इस तथ्य से अनभिज्ञ है की जिस प्रकार तिलों में तेल होता है, चकमक पत्थेर में आग होती है, दर्पण में अक्ष होता है, पुष्प में सुगंद्ध होती है, उसी प्रकार परमात्मा हमारे भीतर है । अज्ञानतावश हम मृग की भांती ताउम्र उसे खोजते रहते हैं, पर प्राप्त नही कर पाते । परमात्मा तो कहता है - मोको कहाँ तू ढूंढे रे बन्दे में तो तेरे पास में, ना मैं मक्का ना मैं काबा ना काशी कैलाश में । लेकिन हम मूड जन इस संदेश को सुन नही पाते । सुनते हैं तो समझ नही पाते ।

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