ALBERT EINSTEIN once
said, "धर्म और ज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं ।"
धर्म के
बिना विज्ञान
लंगडा है
व् विज्ञान
के बिना
धर्म अन्धा।
यह उक्ति
वर्तमान सदी
के उस
विख्यात वैज्ञानिक
की है,
जिन्होंने मानवता
को बहुत
से खोजों
का उपहार
दिया। अनेक
रहसयों की
गुत्थी सुलझाने
के उपरान्त
भी उन्हें
इश्वर के
अस्तित्व को
मानना पडा
और उन्होंने
कहा की
'सृष्टि की
रचना इत्तफाक
की बेतरतीब
ईंटों से
नहीं, प्रतित्व
एक पूर्व
निर्धारित ब्यवस्था
के आधार
पर हुयी
है।
इसकी रचना
के पीछे
कोई महान
शक्ति कार्य
कर रही
है । वही
ईश्वर है।
हमारे वेदों
में लिखा
है की
मई उस
महान पुरुष
(शक्ति) को
जानता हूँ
जो आदित्य
(सूर्य) के
सामान सबको
प्रकाशित करता
है। उसको
जानकार ही
मनुष्य मृत्यु
को उलंघन
कर जाता
है । वही
ईश्वर है
। परन्तु
विज्ञान को
अपनी सोच
का आधार
बनाने वाले
अधिकाँश लोग
अक्सर इस
कथन की पुष्टि करते
पाए जाते
हैं की
इश्वर का
अस्तित्वा नहीं
है। ईश्वर
महज एक
कोरी कल्पना
है ।
वे इस
तर्क की
पुषटी हेतु
अनेक मनोवैज्ञानिक
पहलुओं को
प्रस्तुत करते
हैं । कुछ
लोग कहते
हैं, की
सृष्टि की
रचना कुछ
रासायनिक क्रियाओं
पर आधारित
है, जो
नित्य प्रति
फल घटित
हो रही
है । कुछ
का कथन
है की
एक 'कस्किऔस्नेस्स
' है जो
समस्त विश्वा
में व्याप्त
है व इसका
संचालन कर
रही है
और वे
एक निश्चित
अवधी तक
इसको खोज
लेने का
दावा करते
हैं ।
बाइबल में
उसे 'वर्ड
' या कुरान
में कलमा
'उच्ये -उचयबागी
व पारसी
ग्रंथों में
कलामे कदीम
व गुरुवाणी
में सबद
कहा गया
है। विज्ञान
के क्षेत्र
की प्रतेक
खोज ईश्वर
की सत्ता
का पुष्टिकरण
मात्र है
। परन्तु
वैज्ञानिक सीमित
दृष्टिकोण के
कारण उन
संकेतों को
समझ नहीं
पाते ।
सृष्टी के
संचालन के
विषय में
विज्ञान ने
उर्जा के
संरक्षण का
सिद्धांत प्रस्तुत
किया है,
जिसे लव
ऑफ़ एनेर्ग्य
कहा गया
है । इस
सिद्दांतनुसार उर्जा
को न तो
उत्तपन्न किया
जा सकता
है और
न इसे
नष्ट ही
किया जा
सकता है
। इसका
केवल रूपांतर
किया जा
सकता है
।
यही बात
हमारे धार्मिक
ग्रथ कहते
हैं की
वह परमात्मा
ही इस
जगत को
चलाने वाली
उर्जा है,
शक्ति है,
नियामक तत्वा
है । वह
स्वयं है
अर्थात वह
स्वयं से
उत्तपन्न हुआ
है । वह
सनातन है,
कभी समाप्त
नहीं होता,
निराकार है
। परन्तुं
साकार रूप
लेकर वह
प्रकट होता
है। अतः
अवतारवाद और
कुछ नहीं
परम पिता
परमात्मा ब्रह्म
रूप ऊर्जा
का रूपांतर
मात्र है
। प्रभू
श्री कृष्ण
गीता के
चतुर्थ अध्याय
के छ्टे
श्लोक में
कहते हैं
- उचय मै
अजन्मा व्
अविनाशी होते
हुए भी
तथा समस्त
प्राणियों का
ईश्वर होते
हुए भी
अपनी प्रकृती
को अधीन
करके अपनी
योगमाया से
प्रकट होता
हूँ ।
विज्ञान इसी
ऊर्जा के
विषय में
कहता है
की विश्व
में इस
ऊर्जा का
संचरण एक
'एनर्जी बैंक
' अथवा ऊर्जा
स्त्रोत से
होता है,
जो कभी
समाप्त नहीं
होता । इस
सृष्टी में
भी स्थूल
जगत दीख
पड़ता है।
वह भी
ऊर्जा का
जमा हुआ
रूप (Condensed form of energy) ही
है । धर्म
ग्रंथों में
भी ईश्वर
के गुणों
के विषय
में यही
तथ्य वर्णित
है । इश्वास्योप्निषद के
प्रथम श्लोक
में कहा
गया है
।
वह परमात्मा
पूर्ण है
, यह जगत
भी उस
ब्रह्म से
पूर्ण है
क्योंकि यह
पूर्ण उस
पूर्ण ब्रह्म
से ही
उत्तपन्न हुआ
है । उस
पूर्ण ब्रह्म
में से
पूर्ण को
निकाल लेने
पर भी
वह पूर्ण
ही रहता
है । जड़
जगत व्
चेतन जगत
, सभी उस परमात्मा के
रूप हैं।
बड़ी शक्ती
इन सभी
रूपों में
यहाँ वहां
बिखरे हुयी
हैं। ग्रन्थ
कहते हैं
- 'उचे उस
परमात्मा के
अधीन ही
सभी भूत
प्राणी हैं।
वही परमात्मा
इन सभी
रूपों को
धर कर
एक हुआ
है । अता
ब्रह्म रूपी
परम शक्ती
ही ऊर्जा
स्त्रोत है
जो अनेक
रूपों में
इस सृष्टी
में विद्यमान
है । वह
स्त्रोत कभी
समाप्त नहीं
होता।
विज्ञान कहता
है की
जब ऊर्जा
का रूपांतर
होता है
तो ऊर्जा
की कुल
राशी रहती
है । उसमे
कोई परिवर्तन
नहीं होता
। विज्ञान
में वर्णित
ऊर्जा का
यह गुण
शायद हमारे
पूर्व जनम
के सिद्धांत
की व्याख्या
करता है
। प्रभू
श्री कृष्ण
गीता के
दूसरे अध्याय
के बीसवें
श्लोक में
कहते हैं------
यह आत्मा
किसी काल
में भी
न तो
जन्मता है
और न ही
मरता है
तथा ना
यह उत्त्पन्न
हो कर
फिर होने
वाला ही
है । क्योंकि वह अजन्मा,
नित्य, सनातन
और पुरातन
है । शरीर
के मारे
जाने पर
भी यह
नहीं मारा
जाता । क्रिष्ण कहते हैं
कि जैसे
मनुष्य पुराने
वस्त्रों को
ग्रहन करता
है ठीक
इसी प्रकार
जीवात्मा पुराने
शरीरों को
त्यागकर नए
शरीरों को
प्राप्त करता
है।
जीवन को
अनिश्चित इसलिए
कहते हैं
मृत्यु का
क्षण तय
नहीं हैं
। दरअसल
अनिश्चय तो
मनुष्य का
है और
भरपूर ऊर्जा
का क्षण
कब आयेगा
पता नहीं
। यह
जीवन के
अनिश्चित होने
का असली
कारण है
। जीवन
की क्षणभंगुरता
भी एक
तत्व है,
जिससे प्रायः
वह भयभीत
रहते हैं
।
यह डर
ही है
जो मनुष्य
को मौत
से पहले
कई बार
मारता है
। अमर
होने की
लालसा भी
माया ही
है । कितने
मनुष्य मरने
के बाद
स्वर्ग पाने
के लालच
में न जाने
क्या क्या
कर गुजरते
हैं, जब
की वह
उजारा केवल
एक व्यक्ति
महसूस करतां
है और
मृत्यु अपनी
दहशत खो
देती है
।
मनुष्य का
मृत्यु- बोध
ही डर को मनुष्य
के लिए
अनिवार्य कर
देता है
। क्योकि
मनुष्य योनी
में ही
मृत्यु भोग
सर्वाधिक होता
है । पशुओं
को तो
अपनी मौत
का पता
ही नहीं
चलता, केवल
मनुष्य को
ही पता
है की
मृत्यु आयेगी
और सब
छीन ले
जायेगी।
मृत्यु के
सामने मनुष्य
की यह
असहायता उसे
अमृत की
खोज के
लिये प्रेरित
करती है
। यही
अमृत तो
आत्मा है
। और
धर्म ऐसी
अमरत्वा की
खोज में
है ।